अश्विनी महाजन
पिछली तिमाही में भारत की जीडीपी की ग्रोथ दर घटकर मात्र 4.5 प्रतिशत रह गई, जो पिछले 26 तिमाहियों की ग्रोथ दर में सबसे कम है. इससे पहले 2012-13 की चौथी तिमाही में ग्रोथ दर 4.3 प्रतिशत दर्ज की गई थी. एक अर्थव्यवस्था, जो दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे तेज गति से बढ़ रही थी, के लिए यह चिंता का विषय है.
कोई समस्या होगी तो सुझाव भी आएंगे और नीति-निर्माता समस्याओं को दूर करने का प्रयास भी करेंगे. यदि समस्या का सही निदान होता है और उपयुक्त उपचारात्मक उपाय किए जाते हैं तो देर-सबेर हम समाधान कर भी पाएंगे. लेकिन यदि निदान में ही गलती होती है तो समाधान भी गलत ही होगा. भारतीय अर्थव्यवस्था के धीमेपन में यह सच साबित हो रहा है. नीति-निर्माता और साथ ही ‘विशेषज्ञ’ यदि निदान में गलती करते हैं तो समाधानों में भी फिसल सकते हैं.
यह समझना होगा कि यह धीमापन आपूर्ति (सप्लाई) पक्ष के कारण नहीं है, बल्कि मांग (डिमांड) पक्ष के कारण है. वास्तव में अर्थव्यवस्था में मांग में कमी होने के कारण उत्पादन में धीमापन आ रहा है, जबकि अर्थव्यवस्था में अधिक उत्पादन करने की क्षमता बरकरार है. भारत में उच्च मुद्रास्फीति (तेजी से महंगाई) का एक लंबा इतिहास रहा है, जिसके कारण गरीबों को भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ा है.
इसके कारण जो धन उत्पादक कार्यों में लग सकता था, वह जमाखोरी और कालाबाजारी के लिए लगने लगा, जिससे संसाधनों का गलत उपयोग होता था. एक दशक से ज्यादा समय से पारित वित्तीय दायित्व एवं बजटीय प्रबंधन (एफआरबीएम) एक्ट के तहत सरकार ने स्वयं पर अपने राजकोषीय घाटे को एक सीमा तक रखने का अंकुश लगाया था. इसे धीरे-धीरे लागू किया जा रहा है.
सीमित राजकोषीय घाटे के साथ-साथ नोटबंदी जैसे उपायों से देश में लिक्विडिटी कम होने के कारण मुद्रा-स्फीति की दर बहुत कम हो गई. समझना होगा कि थोड़ी मात्रा में मुद्रा-स्फीति उत्पादन एवं निवेश को प्रोत्साहित करती है.
महंगाई दर घटने से निवेश के लिए प्रोत्साहन कम हो गया, जिसके कारण मांग में धीमापन देखा गया और यही नहीं हमारी सकल स्थिर पूंजी निर्माण की दर भी घट गई.वर्तमान समस्या का स्थायी समाधान तभी हो सकता है, जब गरीबों के पास क्रय शक्ति बढ़े और उससे मांग बढ़े.