हेमधर शर्मा
हाल ही में एक हैरान कर देने वाली रिपोर्ट आई कि दुनिया में जहां शराब की खपत तेजी से घटती जा रही है, वहीं भारत में यह बेतहाशा बढ़ रही है. अमेरिका, यूरोप और चीन जैसे बड़े बाजारों में जहां शराब के मशहूर ब्रांड्स के शेयर 75 प्रतिशत तक गिर चुके हैं, वहीं भारत में देसी शराब कंपनियों के शेयर चौदह सौ प्रतिशत तक चढ़े हैं! दुनिया में खपत घटने का कारण जहां स्वास्थ्य जागरूकता, बदलती आदतों और महंगाई के चलते खर्च करने की क्षमता में कमी को बताया जा रहा है, वहीं भारत में खपत बढ़ने के जो कारण सामने आए, वे हतप्रभ कर देने वाले हैं. फ्यूचर मार्केट इनसाइट्स के अनुसार, देश की 60 प्रतिशत आबादी 35 वर्ष से कम आयुवर्ग की होने से शराब बाजार बढ़ रहा है. यानी जिस युवा शक्ति को हम वरदान समझ रहे थे, वह नशे में डूबती जा रही है! इससे भी ज्यादा स्तब्ध कर देने वाली डब्ल्यूएचओ की ग्लोबल रिपोर्ट है, जिसके अनुसार भारत में महिलाओं में शराब की खपत पिछले दो दशकों में पचास प्रतिशत बढ़ी है.
उधर स्टेटिस्टा और रिपोर्टलिंकर रिसर्च कहती है कि भारत में औसत आय में तीस प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जिससे ब्रांडेड व प्रीमियम शराब की मांग सालाना 18 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है. मतलब अपनी अर्थव्यवस्था जो हमें तेज रफ्तार से दौड़ती दिख रही है उसमें शराब के नशे का असर भी शामिल है!
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार वर्ष 2005 में भारत में शराब की प्रति व्यक्ति खपत 2.4 लीटर थी, जो 2016 में 5.7 लीटर हो गई और 2030 तक 6.7 लीटर अनुमानित है. मध्यप्रदेश जैसे राज्य में वर्ष 2021-22 में 245.33 लाख लीटर शराब की खपत हुई थी, जो 2024-25 में 456.44 लाख लीटर हो गई, यानी तीन साल में ही 86 प्रतिशत का इजाफा! आखिर सरकारें कर क्या रही हैं?
दरअसल शराब के इस खेल में सरकारें भी मालामाल होती हैं. आंकड़े बताते हैं कि हर राज्य को शराब बिक्री से हर साल हजारों करोड़ रु. का राजस्व हासिल होता है. उत्तर प्रदेश ने वर्ष 2022-23 में शराब से 41250 करोड़ रु. कमाए थे, जबकि कर्नाटक ने 20950 करोड़ और महाराष्ट्र ने 15343 करोड़ रुपए आबकारी शुल्क से जुटाए. जाहिर है कि सरकारें सोने का अंडा देने वाली इस मुर्गी से अंडे (राजस्व) तो ज्यादा से ज्यादा हासिल करने की कोशिश करती हैं लेकिन उसे हलाल करना नहीं चाहतीं! हालांकि शराबबंदी लागू करने वाले बिहार जैसे राज्यों का अनुभव बताता है कि इससे सरकारी खजाने को भले नुकसान हो लेकिन समाज को बहुत फायदा होता है. वहां पुरुषों का मोटापा घटा है और सड़क दुर्घटनाएं कम हुई हैं.
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के आंकड़ों के अनुसार बिहार में 83 प्रतिशत विवाहित महिलाओं ने बताया कि जब उनके पति अक्सर शराब पीते थे, तब उन्हें शारीरिक या भावनात्मक हिंसा का सामना करना पड़ता था. वहीं, जिनके पति शराब नहीं पीते थे, उनमें यह प्रतिशत सिर्फ 34 था. यह अंतर ढाई गुना से भी ज्यादा का है. दस साल पहले बिहार में पूर्ण शराबबंदी लागू करने वाली नीतीश सरकार ने हाल के विधानसभा चुनाव में जो एकतरफा जीत दर्ज की उसमें महिला वोटरों की बहुत बड़ी भूमिका थी, जिन्होंने पुरुषों से नौ-दस प्रतिशत ज्यादा मतदान किया.
हो सकता है इन आरोपों में दम हो कि राज्य की सवा करोड़ महिलाओं को चुनाव के ठीक पहले दिए गए दस-दस हजार रु. का इस जीत में बड़ा हाथ है, लेकिन शराबबंदी की क्या कोई भूमिका नहीं रही होगी!
ताज्जुब तो यह है कि समाज की तरह शराब को भी हमने देसी-विदेशी का दर्जा देकर ऊंच-नीच के खाते में बांट रखा है. विदेशी शराब पीने वाले खुद को अभिजातवर्गीय मानते हुए इसे ‘ड्रिंक’ का सभ्य नाम देते हैं, जबकि देसी पीने वाले निम्नवर्गीयों को ‘पियक्कड़’ समझते हैं. चूंकि शासन-प्रशासन चलाने में इन अभिजात्यों का ही बोलबाला होता है, इसलिए ‘विदेशी’ को तो प्राय: वैध करार दे दिया जाता है और अवैध के नाम पर कार्रवाई की गाज सिर्फ ‘देसी’ पर ही गिरती है!
यूरोप-अमेरिका जैसे ठंडे प्रदेशों में रहने वालों की बात तो फिर भी समझ में आती है(गांधीजी को भी इंग्लैंड जाते समय बहुत से लोगों ने डराया था कि शराब के बिना वहां जिंदा नहीं रह पाएंगे), लेकिन भारत जैसे गरम प्रदेश में शराबियों के बढ़ने को किस आधार पर जायज ठहराया जाए?
विडम्बना यह है कि समाज के जिस बौद्धिक वर्ग से आम जन को दिशा दिखाने की अपेक्षा की जाती है, वह खुद भी तो बिना ‘ड्रिंक’ किए (जो अपवाद हों वे क्षमा करें) कुछ लिख-पढ़ नहीं पाता! ऐसे में, अंधों में काना राजा आखिर बने भी तो कौन?