अभिषेक कुमार सिंह का ब्लॉग: जहरीली हवा... पटाखों से ज्यादा कार जिम्मेदार!
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: March 19, 2019 10:26 AM2019-03-19T10:26:02+5:302019-03-19T10:26:02+5:30
अगर पटाखे शहरों में वायु प्रदूषण की मुख्य वजह नहीं हैं, तो क्या कार आदि वाहनों से निकलने वाला धुआं ही प्रदूषण का असली कारण है। सुप्रीम कोर्ट का ऐसा सोचना बेवजह नहीं है। ऐसे कई अध्ययन हुए हैं, जो साबित करते हैं कि पटाखों के अलावा खेतों में जलाई जाने वाली पराली (कृषि अवशेष) को भले ही हवा में जहर घोलने वाला अहम कारण बताया जाता हो, पर इनसे ज्यादा जिम्मेदारी वाहनों की है।
शहर रोजगार देते हैं, पर कुछ रोजगार प्रदूषण भी फैलाते हैं। चूंकि शहरों में प्रदूषण दिनोंदिन जानलेवा होता जा रहा है इसलिए ऐसे रोजगारों और उद्योगों पर जब-तब पाबंदियां लगती रहती हैं। पिछले साल दीपावली के नजदीक सुप्रीम कोर्ट ने यह व्यवस्था दी थी कि या तो हरित पटाखे छोड़े जाएं या फिर त्यौहारों के मौके पर शाम 8 से 10 बजे तक ही पटाखे चलाए जाएं। इधर जब सुप्रीम कोर्ट देश भर में पटाखों के इस्तेमाल पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाने के लिए दायर उस याचिका पर सुनवाई कर रहा था, जिसमें दलील दी गई है कि इनकी वजह से प्रदूषण बढ़ता है तो अदालत ने कहा कि लोग पटाखों के पीछे क्यों पड़े हैं जबकि इनसे ज्यादा प्रदूषण तो वाहनों से होता है। जैसे शहरों की बात करें, तो कारें इसके लिए ज्यादा जिम्मेदार हैं। अदालत ने पटाखों और ऑटोमोबाइल से होने वाले प्रदूषण के बीच तुलनात्मक अध्ययन की बात कह कर एक ऐसी विसंगति पर उंगली रख दी है जो देश में एक ओर रोजगार तो दूसरी तरफ प्रदूषण की चिंता से जुड़ी है।
यहां अहम सवाल यह है कि अगर पटाखे शहरों में वायु प्रदूषण की मुख्य वजह नहीं हैं, तो क्या कार आदि वाहनों से निकलने वाला धुआं ही प्रदूषण का असली कारण है। सुप्रीम कोर्ट का ऐसा सोचना बेवजह नहीं है। ऐसे कई अध्ययन हुए हैं, जो साबित करते हैं कि पटाखों के अलावा खेतों में जलाई जाने वाली पराली (कृषि अवशेष) को भले ही हवा में जहर घोलने वाला अहम कारण बताया जाता हो, पर इनसे ज्यादा जिम्मेदारी वाहनों की है। कुछ ही दिन पहले सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट ने एक रिपोर्ट जारी कर बताया है कि आबोहवा खराब करने की वजहों में 61 प्रतिशत हिस्सेदारी वाहनों और इंडस्ट्री से होने वाले प्रदूषण की है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, दिल्ली-एनसीआर में ही कार जैसे वाहनों की वजह से 39 प्रतिशत और इंडस्ट्री के कारण 22 प्रतिशत प्रदूषण हो रहा है। इनके अलावा धूल से 18 प्रतिशत प्रदूषण फैल रहा है।
बात सिर्फ दिल्ली तक केंद्रित नहीं कर सकते क्योंकि देश के ज्यादातर शहरों में निजी वाहनों की संख्या साल-दर-साल बढ़ती ही जा रही है। उल्लेखनीय यह है कि निजी वाहनों में सबसे बड़ी संख्या कारों की है जिसका उपभोक्ता शहरी मध्यवर्ग है। मध्यवर्गीय तबके ने चार से पांच लाख की कार वैसे तो एक स्टेटस सिंबल या सपने के तहत ही खरीदी थी लेकिन बढ़ती महानगरीय दूरियों और पब्लिक ट्रांसपोर्ट की खामियों के कारण वह उसकी अनिवार्य जरूरतों में शामिल हो गई है। दिल्ली-एनसीआर में तो लोग मेट्रो स्टेशन तक पहुंचने के लिए भी कारों का इस्तेमाल करते हैं क्योंकि उन्हें इस वास्ते फीडर बसों का विकल्प नहीं मिल पाता है। सेंट्रल रोड रिसर्च इंस्टीट्यूट (सीआरआरआई) के प्रमुख साइंटिस्ट डॉ। एस। वेलमुरगन के मुताबिक दिल्ली में 6,088 बसों के बेड़े में से औसतन 3850 बसें ही रोजाना सड़कों पर निकल पाती हैं जो जरूरत के मुकाबले नाकाफी हैं। ऐसे में लोगों को खुद की कार एक सुविधाजनक विकल्प लगता है।