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ब्लॉग: अपनी नकारात्मकता से छुटकारा पाए कांग्रेस

By अभय कुमार दुबे | Updated: July 5, 2023 08:51 IST

कांग्रेस के प्रवक्तागण ने मान लिया है कि देश की राजनीति दो भागों में बंट गई है। एक तरफ भाजपा है, और दूसरी तरफ कांग्रेस है। जहां तक क्षेत्रीय शक्तियों का सवाल है, ऐसे कांग्रेसियों की मान्यता है कि वे अंतत: कांग्रेस के साथ आने के लिए मजबूर हो जाएंगी।

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ठळक मुद्देकांग्रेस अपने प्रवक्तागण के आक्रामक रवैये को कड़ी समीक्षा की कसौटियों पर कसने का प्रयास करेकांग्रेस अपने तीखे तेवरों वाले प्रवक्तागण के सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं की समीक्षा करेराहुल गांधी की सफल भारत जोड़ो यात्रा से नेताओं, प्रवक्ताओं और कार्यकर्ताओं में नया जोश आया है

आजकल कांग्रेस के प्रवक्तागण मीडिया-मंचों पर आक्रामक रवैया दिखाते हुए ऐसे हर नेता, समीक्षक या राजनीतिक ताकत को भाजपा-समर्थक बताते नजर आते हैं, जो राहुल गांधी की भूरि-भूरि प्रशंसा नहीं करता। ऐसा लगता है कि उन्होंने साफ तौर पर मान लिया है कि देश की राजनीति दो भागों में बंट गई है। एक तरफ भाजपा है, और दूसरी तरफ कांग्रेस है। जहां तक क्षेत्रीय शक्तियों का सवाल है, ऐसे कांग्रेसियों की मान्यता है कि वे अंतत: कांग्रेस के साथ आने के लिए मजबूर हो जाएंगी।

कांग्रेस के इस हालिया रवैये को कड़ी समीक्षा की कसौटियों पर कसने की जरूरत है। इसके सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं को स्पष्ट करने से समीक्षा की शुरुआत की जा सकती है। आइए, पहले सकारात्मक पहलुओं को रेखांकित करें।

राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा की सफलता और दो विधानसभा चुनावों की जीत निश्चित रूप से इस पार्टी में एक नई जान फूंक चुकी है। उसके कार्यकर्ताओं और नेताओं का आत्मविश्वास बढ़ा है। वे अब भाजपा से दबते हुए नहीं दिखाई देते। यात्रा के दौरान ही पार्टी ने अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव किया।

मल्लिकार्जुन खड़गे ने अपने अनुभव का लाभ उठाते हुए कई ऐसे कदम उठाए हैं जिनसे कांग्रेस का संगठन पटरी पर लौटता हुआ दिखने लगा है। मसलन, खड़गे पार्टी के भीतर कार्यकर्ताओं और नेताओं के असंतोष और झगड़ों को निबटाने के लिए तत्पर रहते हैं। राहुल गांधी की अध्यक्षता और उसके बाद यह काम कांग्रेस के भीतर तकरीबन बंद हो गया था। दूसरे, खड़गे राज्यों के स्तर पर पार्टी की गुटबाजी का शमन करने में भी लगे हुए हैं। इसके तीन-चार उदाहरण हमारे सामने हैं।

उन्होंने कर्नाटक में सिद्धारमैया और शिवकुमार के बीच सुलह कराई जिसके कारण पार्टी एकताबद्ध होकर चुनावी मुहिम चला पाई। जीतने के बाद भी यह खड़गे ही थे जिन्होंने शिवकुमार को उपमुख्यमंत्री बनने के लिए मना लिया। उसी तरह खड़गे छत्तीसगढ़ में खड़गे जूदेव और भूपेश बघेल के बीच तालमेल कायम करने में सफल रहे। इससे पहले इन दोनों के बीच तकरार की स्थिति थी। इस समय जूदेव उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं, और लगता है कि बघेल के नेतृत्व में अगला चुनाव लड़ने के फॉर्मूले पर सहमति बन गई है।

उधर खड़गे राजस्थान में गहलोत और पायलट के बीच विवाद को सौम्य बनाने में लगे हुए हैं। इसके लिए उन्होंने आलाकमान की तरफ से सबसे पहले गहलोत की सर्वोच्चता को स्थापित किया। जब एक बार स्पष्ट हो गया कि कांग्रेस में गहलोत के नंबर-वन होने पर कोई संदेह नहीं है तो पायलट को भी लगने लगा कि उनके विद्रोह का फिलहाल कोई नतीजा निकलने वाला नहीं है। यह सही है कि राजस्थान में छत्तीसगढ़ जैसी एकता नहीं बन पाई है, लेकिन दोनों पक्षों ने अपनी-अपनी तलवारें म्यान में जरूर डाल ली हैं।

यहीं हम हिमाचल प्रदेश को नहीं भूल सकते। वहां खड़गे के नेतृत्व में जिस तरह से दिवंगत वीरभद्र सिंह की पत्नी और बेटे की दावेदारी को नकार कर सुक्खू को मुख्यमंत्री पद पर बैठाया गया, उससे स्पष्ट हो गया कि कांग्रेस आलाकमान भविष्य की तरफ भी देखने लगा है।इन सफलताओं और सकारात्मकताओं का श्रेय निश्चित रूप से कांग्रेस को दिया जाना चाहिए लेकिन, इसी जगह के बाद से नकारात्मकताएं शुरू हो जाती हैं

पहली और बड़ी नकारात्मकता यह है कि कांग्रेस ने संघवाद के मसले पर चुप्पी साधी हुई है। कोई भी देख सकता है कि भाजपा सरकार ने किस तरह राज्यपालों और राजभवनों का सहारा लेकर गैरभाजपा सरकारों का जीना दूभर कर रखा है। इसका सीधा मतलब है कि अगर राज्य की जनता ने विधानसभा में भाजपा को न चुना तो उसे केंद्र की तरफ से खुले असहयोग के लिए तैयार रहना चाहिए लेकिन कांग्रेस इस प्रश्न को उठाने से परहेज करती हुई दिखती है।

जाहिर है कि संघवाद के सवाल पर उसका अपना इतिहास भी गड़बड़ है, लेकिन आज वह उस इतिहास से काफी दूर आ चुकी है। उसे क्षेत्रीय ताकतों का नेतृत्व अगर करना है तो समझना होगा कि दिल्ली में अध्यादेश का सवाल आम आदमी पार्टी का मसला न होकर एक चुनी हुई सरकार के लोकतांत्रिक अधिकारों का सवाल है। उसे यह भी समझना होगा कि तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा की गई कार्रवाई हो या पंजाब के राज्यपाल द्वारा विधानसभा का सत्र बुलाने में डाला गया विघ्न हो- दिल्ली समेत ये सभी सवाल संघवाद के सवाल हैं।

दूसरी बड़ी नकारात्मकता यह है कि कांग्रेस भाजपा के ‘हार्ड हिंदुत्व’ के मुकाबले अपने ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ का प्रलोभन नहीं छोड़ पा रही है। इसी चक्कर में वह अपने इतिहास को सांप्रदायिकता की दुर्गंध से गंधा चुकी है। चाहे ताले खुलवाने की घटना हो, चाहे इंदिरा गांधी द्वारा मुसलमानों की देशभक्ति पर शक करने का प्रकरण हो या राजीव गांधी द्वारा अयोध्या से अपना चुनावी अभियान शुरू करना हो - इतिहास के इन तमाम प्रकरणों में कांग्रेस हिंदुत्ववादी राजनीति के लिए जमीन साफ करते हुए नजर आती है। कांग्रेस को इन मसलों पर एक सामरिक चुप्पी साधने का रवैया अपनाना होगा और कोशिश करनी होगी कि वह भाजपा द्वारा तय किए गए एजेंडे पर चलती हुई नजर न आए।

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