अभय कुमार दुबे का ब्लॉगः राहुल गांधी की चुप्पी के मायने कुछ और हैं!

By अभय कुमार दुबे | Published: November 21, 2018 06:12 AM2018-11-21T06:12:14+5:302018-11-21T06:12:14+5:30

कांग्रेस का इतिहास बताता है कि वह सर्वधर्मसमभाव वाले सेक्युलरवाद में सैद्धांतिक यकीन रखने वाली पार्टी रही है।

Abhay Kumar Dubey Blog: Why Rahul Gandhi silent | अभय कुमार दुबे का ब्लॉगः राहुल गांधी की चुप्पी के मायने कुछ और हैं!

अभय कुमार दुबे का ब्लॉगः राहुल गांधी की चुप्पी के मायने कुछ और हैं!

कर्नाटक संगीत के मशहूर गायक टी।एम। कृष्णा का कसूर केवल इतना है कि वे अपने गीतों के जरिये केवल भगवान की आराधना नहीं करते, बल्कि अल्लाह और ईसा मसीह की भी करते हैं। धार्मिक ध्रुवीकरण पर आधारित आज के राजनीतिक माहौल में ऐसा करना मामूली नहीं, बल्कि एक तरह का महाअपराध है जिसे करने की सजा भुगतनी पड़ सकती है। हुआ भी यही। जैसे ही एयरपोर्ट अथॉरिटी ने उनकी संगीत सभा के आयोजन की घोषणा की, वैसे ही नेट पर सक्रिय हिंदुत्ववादी ट्रोल उनके पीछे पड़ गए जिससे अथॉरिटी डर गई और उसने कृष्णा का कार्यक्रम रद्द कर दिया।

फिर यह कार्यक्रम कामयाबी के साथ दिल्ली सरकार ने कराया। न केवल यह घटनाक्रम मानीखेज है, बल्कि इस प्रकरण पर हो रही बौद्धिक बहस भी खासी विचारोत्तेजक है। मसलन, एक प्रतिष्ठित टिप्पणीकार ने लिखा है कि अगर आज जवाहरलाल नेहरू होते तो सांप्रदायिक बर्बरता के इस उदाहरण पर बेहद नाराज होते। लेकिन, ऐसी कोई नाराजगी राहुल गांधी की तरफ से नहीं दिखाई दे रही है। उनके कांग्रेसी नेता भी चुपचाप बैठे हुए हैं, क्योंकि उन्होंने नरम हिंदुत्व का बाना पहन रखा है। कांग्रेस के मौजूदा रवैये की यह आलोचना एकदम सही है और की जानी चाहिए। लेकिन, राहुल की चुप्पी के पीछे मौजूद कारण को समझना भी उतना ही आवश्यक है।

कांग्रेस का इतिहास बताता है कि वह सर्वधर्मसमभाव वाले सेक्युलरवाद में सैद्धांतिक यकीन रखने वाली पार्टी रही है। लेकिन अस्सी के दशक की शुरुआत में इंदिरा गांधी की सत्ता की वापसी के बाद इस सैद्धांतिक यकीन ने उसकी व्यावहारिक राजनीति को प्रभावित करना बंद कर दिया। दरअसल, इंदिरा गांधी को इस बात से सख्त नाराजगी थी कि मुसलमानों ने 1977 के चुनाव में उन्हें वोट नहीं दिया। इसके बाद से वे हिंदू राष्ट्रवादी भावनाओं को स्पर्श देने की राजनीति करने लगीं। इस तरह उन्होंने एक तरह के कांग्रेसी हिंदूवाद की नींव रखी।

इसमें और भारतीय जनता पार्टी के हिंदुत्ववादी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में अंतर यह था कि कांग्रेस ने ऐसा करते हुए भी कभी मुसलमान वोटों की दावेदारी नहीं छोड़ी। वह लगातार स्वयं को राष्ट्रीय मंच पर इस तरह से पेश करती रही मानो मुसलमान मतदाताओं की स्वाभाविक पसंद वही है। एक साथ हिंदू और मुसलमान मतदाता मंडल को साधने की इस कोशिश का नतीजा यह निकला कि वह पार्टी कभी तो हिंदुओं को अपनी ओर खींचने की राजनीति करती नजर आई, तो कभी मुसलमानों को। ताला खुलवाने, शिलान्यास करवाने, अपनी चुनावी मुहिम अयोध्या से शुरू करने और बाबरी मस्जिद पर आक्रमण करने वालों को नजरअंदाज करने वाली उ।प्र। की भाजपा सरकार को बर्खास्त करने में देर करने की ‘सुचिंतित’ रणनीति अपनाने वाली इस पार्टी के नेता इफ्तार पार्टियां देते और शाही इमामों के साथ रब्तजब्त करते भी नजर आए। बारी-बारी से की गई इस राजनीति ने अंतत: कांग्रेस को कहीं का न रखा।

जैसे ही वक्त का रुझान हिंदुत्ववादी बहुसंख्यकवाद के पक्ष में झुका, वैसे ही कांग्रेस के ¨हंदू रुझान उसके मुस्लिम रुझानों के मुकाबले रख कर देखे जाने लगे। लोगों को लगा कि दोनों सांप्रदायिकताओं के बीच संतुलन करने वाली इस पार्टी की अपेक्षा तो वह पार्टी ज्यादा सही है जिसके प्रवक्ता टी।वी। पर साफ तौर पर कहते हैं कि भाजपा बिना मुसलमान वोटों के पहले भी सत्ता में आई है, और एक बार फिर मुसलमान वोटों के बिना ही सत्ता में आएगी। नतीजा यह निकला कि अपनी तमाम ‘हिंदू रणनीति’ के बावजूद भाजपा और संघ परिवार के प्रचारकर्ता इस पार्टी को हिंदू विरोधी करार देने में कामयाब हो गए। 

राहुल गांधी का मौजूदा जनेऊधारी ब्राrाण संस्करण और उनका सतत मंदिर-भ्रमण कांग्रेस की इसी विफलता की प्रतिक्रिया का परिणाम है। दिलचस्प बात यह है कि कांग्रेस के पारंपरिक मुसलमान समर्थक राहुल गांधी के इस हिंदू अवतार का बुरा नहीं मान रहे हैं। बल्कि, वे दिलचस्पी से देख-परख रहे हैं कि आखिर इस रणनीति के राजनीतिक लाभ किस तरह से कांग्रेस को मिलते हैं। भाजपा और संघ परिवार के आक्रामक हिंदुत्व के मुकाबले अल्पसंख्यक मतदाताओं को राहुल का ‘नरम हिंदूवाद’ अधिक सुरक्षित लगता है। मुसलमान जानते हैं कि ओवैसी किस्म का नेतृत्व उनकी ज्यादा दूर तक मदद नहीं कर सकता।

कांग्रेस ही अंत में उनके काम आएगी, क्योंकि कांग्रेस में ही हिंदू गोलबंदी की क्षमता है और कांग्रेस ही पूरे देश में बहुत अच्छा चुनाव लड़ने की सूरत में डेढ़ सौ या उससे ज्यादा सीटें जीत सकती है। अन्य किसी विपक्षी पार्टी में न इतनी क्षमता है, न ही उसका इतना राष्ट्रीय प्रसार है। जाहिर है कि टिप्पणीकार कितना भी उकसाएं, राहुल गांधी जुबान नहीं खोलेंगे। वे एक ऐसे हिंदू नेता की तरह उभरना चाहते हैं जो चाहता है कि मुसलमानों से उसके संबंध पुराने और दोस्ताना बने रहें। इसमें कोई शक नहीं कि अगर ऐसे नेता के हाथ में केंद्र की सत्ता आती है तो फिर कोई भी सरकारी विभाग टी।एम। कृष्णा की संगीत-सभा रद्द करने की जुर्रत नहीं करेगा।

Web Title: Abhay Kumar Dubey Blog: Why Rahul Gandhi silent

भारत से जुड़ीहिंदी खबरोंऔर देश दुनिया खबरोंके लिए यहाँ क्लिक करे.यूट्यूब चैनल यहाँ इब करें और देखें हमारा एक्सक्लूसिव वीडियो कंटेंट. सोशल से जुड़ने के लिए हमारा Facebook Pageलाइक करे