अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: एक ‘अपर्याप्त बजट’ के अंदेशे को समझो

By अभय कुमार दुबे | Published: February 5, 2020 07:20 AM2020-02-05T07:20:14+5:302020-02-05T07:20:14+5:30

विशेषज्ञों की निर्विवाद राय के अनुसार हमारी समस्या यह है कि बाजार में मांग बड़ी हद तक घट गई है. चाहे कारें हों या बिस्कुट का पैकेट- माल बिक नहीं रहा है और कुल मिला कर उपभोग की मात्र में खासी कमी आई है.

Abhay Kumar Dubey blog: Understand the rules of an 'insufficient budget' | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: एक ‘अपर्याप्त बजट’ के अंदेशे को समझो

अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: एक ‘अपर्याप्त बजट’ के अंदेशे को समझो

 सरकार के समर्थक हों या आलोचक, 2020-21 के केंद्रीय बजट के बारे में कमोबेश सभी एकमत हैं कि यह एक ‘अपर्याप्त’ बजट है. अर्थात् यह बजट अर्थव्यवस्था की सुस्ती और पस्ती को दूर करने का पूरा प्रयास नहीं करता. शनिवार को आए बजट से एक दिन पहले शुक्रवार को राष्ट्रीय सांख्यकीय कार्यालय (एनएसओ) द्वारा जारी आंकड़ों से स्पष्ट हो जाता है कि हमारी अर्थव्यवस्था का ग्राफ 2016-17 से ही नीचे जा रहा है.

विशेषज्ञों की निर्विवाद राय के अनुसार हमारी समस्या यह है कि बाजार में मांग बड़ी हद तक घट गई है. चाहे कारें हों या बिस्कुट का पैकेट- माल बिक नहीं रहा है और कुल मिला कर उपभोग की मात्र में खासी कमी आई है. जब माल नहीं बिकेगा, तो निर्माता नया माल क्यों बनाएंगे, पुराने कारखाने ही पूरी क्षमता से उत्पादन नहीं करेंगे तो नई फैक्टरियां क्यों लगेंगी, और अंत में नतीजा यह होगा कि नया निवेश क्यों होगा.

यह गिरावट का एक ऐसा चक्र है जो अर्थव्यवस्था में पहले सुस्ती लाता है, और फिर धीरे-धीरे वह सुस्ती पस्ती में बदलती चली जाती है. बजट एक ऐसा मौका था, जब सरकार इस गिरावट के सिलसिले को रोक सकती थी. पर ऐसा लगता है कि उसने यह अवसर गंवा दिया है.

विशेषज्ञों में इस बात पर भी आम तौर पर सहमति है कि मांग और उपभोग में आई गिरावट में अनौपचारिक क्षेत्र का भट्ठा बैठने की प्रमुख भूमिका है. यह क्षेत्र ठप इसलिए हुए हैं कि नवंबर, 2016 से जुलाई, 2017 के बीच इस क्षेत्र को नोटबंदी और जीएसटी के धक्के ङोलने पड़े जो इसके लिए बहुत ज्यादा साबित हुए. यह अनौपचारिक क्षेत्र ही है जिसमें भारतीय श्रम-शक्ति का अधिकतर हिस्सा लगा हुआ है.

अर्थशास्त्रियों ने पहले ही चेतावनी दी थी कि इस परिघटना से लोगों की आमदनियां घटेंगी और उसका असर कुल घरेलू उत्पाद कम होने में निकलेगा. लेकिन, सरकार ने इन चेतावनियों पर ध्यान नहीं दिया. संशोधनकारी कदम उठाने के बजाय पिछले साल के बजट में सरकार ने वृद्धि दर और राजस्व वसूली का जरूरत से ज्यादा अनुमान लगाया.

सरकार ने महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना पर साठ हजार करोड़ के बजाय 71 हजार करोड़ रु. खर्च किया. यह एक संकेतक था कि देहातों में लोगों के पास काम नहीं है, और मनरेगा के तहत बाजार से कम मेहनताना मिलने पर भी लोग रोजगार पकड़ने के लिए मजबूर हैं. जब अनौपचारिक क्षेत्र और ग्रामीण क्षेत्र बीमार हो गया तो औपचारिक अर्थव्यवस्था में भी देर-सबेर गिरावट की छूत लगनी लाजिमी थी.

ध्यान रहे कि गरीब लोग अपनी आमदनी का ज्यादातर हिस्सा उपभोग पर खर्च कर देते हैं और उनके द्वारा बचत नाममात्र की भी नहीं होती. अगर इस तबके की जेब में पैसा घट जाए तो कुल मिला कर मांग पर विपरीत असर पड़ता है. और हुआ भी यही.

इस समस्या को संबोधित करने के लिए जरूरी था कि नए बजट में इन पहलुओं पर विशेष ध्यान दिया जाता. लेकिन, ऐसा कुछ नहीं किया गया. उल्टे ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के लिए पिछले साल से भी दस हजार करोड़ कम आवंटित किए गए. किसानों के खाते में सीधे धन भेजने वाली प्रधानमंत्री किसान योजना के लिए आवंटन बढ़ाया ही नहीं गया.

इसी तरह दोपहर का भोजन देने और गरीबों के लिए बनाई गई स्वास्थ्य योजना आयुष्मान भारत को भी किसी बढ़ोत्तरी से नहीं नवाजा गया. यह पहले से ही कहा जा रहा था कि सरकार के पास विकल्प बहुत ज्यादा नहीं है. उसके हाथ बंधे हुए हैं. जो भी बची हुई गुंजाइशें हैं, उनके कौशलपूर्वक इस्तेमाल से शायद अर्थव्यवस्था को कुछ संभाला जा सकता है.

दुर्भाग्य से यह बजट अर्थव्यवस्था को न तो मांग बढ़ाने की ओर ले जा पाएगा, और न ही निवेश बढ़ाने की तरफ. नतीजा यह है कि अगले साल तक अर्थव्यवस्था नई नीचाइयों को छूने के लिए अभिशप्त होगी.

Web Title: Abhay Kumar Dubey blog: Understand the rules of an 'insufficient budget'

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