भारतीय जनता पार्टी और उसकी सरकार कश्मीर के मसले पर भले ही अपने बहुमत के कारण कितनी भी आत्मविश्वस्त दिखती रहे, पर स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से नरेंद्र मोदी के भाषण में उनके मन के अंदेशों को पढ़ा जा सकता है.
यह साफ तौर पर दिखाई देता है कि प्रधानमंत्री धारा 370 को हटाने के मामले अपनी पार्टी की विरासत को नजरअंदाज करके किसी न किसी प्रकार उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन के साथ इस कदम को जोड़ने की पॉलिटिकल इंजीनियरिंग करने में लगे हुए हैं. इसीलिए उन्होंने अपने डेढ़ घंटे के भाषण में एक बार भी श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जिक्र नहीं किया.
धारा 370 हटाने को उन्होंने ‘सरदार पटेल का सपना’ बताया. गृहमंत्री समेत अमित शाह समेत भाजपा के कई नेता भी संसद और सार्वजनिक मंचों से यह कहते रहे हैं कि पटेल और आंबेडकर भी धारा 370 के पक्ष में नहीं थे. लेकिन, यह कहते हुए वे साथ में मुखर्जी को इसका मुख्य श्रेय देते रहे हैं.
सही भी है, क्योंकि श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इसी मुद्दे पर संघर्ष करते हुए अपने प्राण दिए थे. लेकिन, प्रधानमंत्री ने ऐसा नहीं किया. मुखर्जी की भूमिका को पूरी तरह से विस्मृत कर देना कोई गलती से किया गया काम नहीं था. शायद नरेंद्र मोदी यह समझते हैं कि मुखर्जी का जिक्र करने से धारा 370 वाला मामला जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी तक सीमित रह जाता है. अगर गैर-जनसंघी राजनीतिक हस्तियों की भूमिका को फोकस में लाया जाएगा तो इसे एक संकीर्ण विचारधारात्मक लक्ष्य के बजाय एक राष्ट्रीय लक्ष्य के रूप में पेश किया जा सकेगा.
दरअसल, देश की सभी बड़ी-छोटी रियासतों को नव-स्वतंत्र भारत में मिलाने वाले पटेल अच्छी तरह से जानते थे कि हैदराबाद और जूनागढ़ जैसी रियासतों को मिलाना एक अलग बात है, और कश्मीर का विलय कहीं दूसरी बात है. हैदराबाद का शासक मुसलमान था, पर प्रजा हिंदू बहुल थी.
इसी तरह जूनागढ़ का शासक मुसलमान था, पर प्रजा मुख्य तौर पर हिंदू थी. इसके उलट कश्मीर का शासक हिंदू था, प्रजा मुस्लिम बहुल थी. नेहरू की नीति को पटेल का समर्थन मुख्य रूप से इसी पहलू के कारण था.
जहां तक आंबेडकर की धारा 370 से नाराजगी का सवाल है, तथ्य एक दम साफ हैं और उन्हें रिकॉर्ड पर देखा जा सकता है. बाबासाहब के लिखित साहित्य और भाषणों को पूरी तरह से खंगालने के बाद भी कहीं ऐसा नहीं मिलता कि उन्होंने धारा 370 का विरोध किया हो (हालांकि उन्होंने स्पष्ट रूप से धारा 370 का समर्थन भी कभी नहीं किया). यह चर्चा करते हुए हमें एक बात कभी नहीं भूलनी चाहिए.
कश्मीर, मुसलमानों और भारत-विभाजन पर आंबेडकर के विचार उनकी प्रचलित सेक्यूलर और रैडिकल छवि से मेल नहीं खाते. कश्मीर पर उनकी राय थी कि उसका मुसलमान बहुल इलाका पाकिस्तान में चला जाना चाहिए, और बौद्ध (लद्दाख) व हिंंदू बहुल क्षेत्र भारत में रह जाना चाहिए.
जाहिर है कि वे किसी भी मुस्लिम बहुसंख्या वाले क्षेत्र के भारत में बने रहने को भविष्य में आ सकने वाली मुश्किलों के आईने में देखते थे. जाहिर है कि आंबेडकर जैसी हस्ती को अपने पक्ष या विपक्ष में इस्तेमाल करने से हमारा वर्तमान राष्ट्रीय जीवन और पेचीदगियों में फंस सकता है