2024 in politics: वर्ष 2024 बीतने में तीन दिन बाकी हैं. किंतु गुजरते साल ने महाराष्ट्र की राजनीति में इतना उतार-चढ़ाव दिखाया कि उस पर कोई समझ विकसित कर पाना आज भी मुश्किल है. किसी भी राज्य के चुनावी साल में बिसात तो कुछ माह पूर्व से बिछने लगती है, लेकिन प्रदेश में पूरे पांच साल चुनाव के इंतजार में गुजरे और जब मतदाता के हाथ में निर्णय की घड़ी आई तो उसने सारे अनुमानों को ध्वस्त कर दिखाया. लोकसभा चुनाव में सत्ताधारी दलों का अति आत्मविश्वास और विधानसभा चुनाव में विपक्ष की उम्मीद से अधिक अपेक्षा औंधे मुंह गिरे.
हालांकि परिणाम के बाद ‘जो जीता वही सिकंदर’ कहलाया, फिर भी परिणामों पर उठते सवाल राजनीति से समाज तक शोर करते रहे. चुनाव आयोग की निष्पक्षता से लेकर दलगत गड़बड़ियों पर आवाजें उठती रहीं. किंतु समाधान से अधिक परिणाम और कारण समझने में अधिक समय नहीं लगाया गया. संशय के आधार पर जीत-हार का जश्न-गम मनाया गया.
महाराष्ट्र में वर्ष 2019 के विधानसभा चुनाव के बाद नया साल कुछ नए परिदृश्य को लेकर ही आरंभ हुआ. पहले चुनाव के बाद दो सरकारों का विचित्र तरीके से गठन हुआ, जो पहले कभी नहीं हुआ था. फिर कुछ माह में महामारी कोरोना आ धमकी. दो साल के कोरोना संक्रमण की समाप्ति के बाद जब राज्य की महाविकास आघाड़ी सरकार के पास कुछ करने का अवसर आया तो वह शिवसेना की बगावत का शिकार हो गई. फिर नई महागठबंधन की सरकार बनी और कुछ माह चलते ही उसके साथ राकांपा टूटकर जुड़ गई.
वर्ष 2022, 2023 टूटने और जुड़ने के रहे और उन्हीं के बीच लोकसभा चुनाव की तैयारी आरंभ हुई. चूंकि लगभग दो सौ विधायकों के समर्थन से सरकार चल रही थी, इसलिए लोकसभा चुनाव में अपेक्षा गलत नहीं थी. किंतु 45 की अपेक्षा में महज 17 सांसद जीतने से सत्ताधारी गठबंधन को बड़ी निराशा हाथ लगी.
उसके बाद हावी विपक्ष के आगे विधानसभा चुनाव कड़ी चुनौती थे, लेकिन सत्ताधारी गठबंधन ने 230 सीटें जीतकर ऐसा चमत्कार किया कि विपक्ष उसे अभी तक समझ नहीं पाया है. दरअसल बीते पांच सालों में राजनीति में कई चमत्कार हुए और बीते साल में बारी मतदाताओं की थी, जिन्होंने आखिर अपना खेल दिखा दिया.
हालांकि चुनाव के बाद विजयी दल परिणामों की अपने ढंग से समीक्षा कर उपलब्धि बताने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं, जबकि उन्हें यह मानने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि साल के दो चुनावों में मतदाता के मन की बात को पढ़ने में कोई भी दल सफल नहीं हो पाया. सब जानते हैं कि राज्य ही नहीं पूरे देश में महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, असुरक्षा के मामलों पर चर्चा कम नहीं होती है.
इसमें संविधान और आरक्षण आग में घी का काम करते हैं. किंतु राजनीतिक दल इन्हें अपनी सुविधा के साथ जनता के बीच ले जाते हैं और चुनाव परिणामों के बाद अपने ढंग से उनकी व्याख्या करते हैं. दरअसल मुख्यालयों में बनने वाली चुनावी योजनाओं और धरातल की चिंताओं का कोई तालमेल नहीं बन पाता है. लोकसभा चुनाव के समय भी केंद्र की ओर से अनेक योजनाओं का प्रचार किया गया था.
उनकी सफलता के आंकड़े बांटे गए थे, लेकिन उनका मतदाता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और सत्ताधारियों को झटका खाना पड़ा. वास्तविकता में किंतु वह स्थिति उतनी भी विपरीत नहीं थी, जितनी परिणामों से सामने बताई गई. मतदान के आंकड़े मामूली अंतर से विजय-पराजय की कहानी कह रहे थे. बावजूद इसके प्रचार कुछ इस तरह हुआ कि 45 सीटों की अपेक्षा रखने वाले 17 सीटों पर सिमट गए.
सरकार को संविधान सहित जनता के सभी मामलों पर बड़े नुकसान का सामना करना पड़ा. मगर असलियत यही थी कि यह मतदाता का चमत्कार था, जो पक्ष-विपक्ष दोनों की समझ से बाहर था. वे मूल में छिपी बात समझ नहीं पाए. अब जब विधानसभा चुनाव की स्थिति बनी तो दूसरा चमत्कार हुआ. जहां एक ओर विपक्ष अपनी सत्ता में वापसी की तैयारी कर चुका था.
वहीं विपक्ष के नेता पद के लिए संघर्ष करता दिखाई दिया. दूसरी ओर इतनी बड़ी सफलता के बाद सत्ता पक्ष के पास भी अपनी जीत की व्याख्या का बहुत बड़ा आधार नहीं था. इतना जरूर था कि जिस तरह लोकसभा चुनाव में सत्ता पक्ष ने अपनी हार नहीं मानी, उसी तरह विधानसभा चुनाव में विपक्ष ने अपनी पराजय को स्वीकार नहीं किया. दोनों असली-नकली जीत-हार में आम जनता को उलझाते रहे.
फिलहाल इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) पर शक से लेकर वोटर वेरीफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल(वीवीपैट) की पर्चियों की गिनती की मांग और समाधान जारी है, जिसमें आरोपों की पुष्टि नहीं हो पा रही है. परिणामों के कुछ माह बाद नेता यह भी मानने लगे हैं, कि वे अनेक बार ईवीएम से ही चुनाव जीत चुके हैं.
लेकिन मशीन से अधिक चिंता और अंदरूनी समस्या यह है कि मतदाता-नेता के बीच का फासला कुछ इतना अधिक हो चला है कि दोनों एक-दूसरे को पहचान नहीं पा रहे हैं. सामने दिखती पराजय पर भी दावे किए जा रहे हैं. सरकार, चुनाव, राजनीतिक दल अपनी परिपाटी पर चल कर दावों और नतीजों के बीच सामंजस्य बनाने में जुटे रहते हैं, लेकिन मतदाता के दिल की बात को समझ पाना मुश्किल ही होता है.
चुनाव के नारे, सभाओं की भीड़, रोड शो का उत्साह, अलग-अलग मीडिया पर तरह-तरह का प्रचार चुनाव को किस मोड़ पर ले जा रहा है, यह समझना आसान नहीं रह गया है. यही कारण है कि जब परिणाम सामने आते हैं तो राजनीतिक दल कभी गम में बौखला जाते हैं तो कभी खुशियों में आपा खोने लगते हैं.
यहीं से चुनाव के परिणामों के असली-नकली चमत्कार की परिभाषा गढ़ने के प्रयास आरंभ होते हैं, जो लोकतांत्रिक दृष्टि से अच्छे नहीं माने जा सकते हैं. इसे ‘मन का हो तो अच्छा, मन का न हो तो और भी अच्छा’ की तरह अंतिम फैसला ही मानना चाहिए. शायद बीते साल का यही संदेश भी है.