हाल ही में 900 से अधिक आवश्यक दवाओं की कीमतों में जो इजाफा हुआ है, उसके अंतर्गत हृदय रोग और मधुमेह जैसी बीमारियों के लिए जरूरी दवाइयों की कीमतों में भी औसतन 1.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.
यह आंकड़ा हो सकता है कि आपको छोटा दिखे और आप सोचें कि 100 रुपए की दवाई में 1 रुपए 70 पैसे ही तो बढ़े हैं! लेकिन सवाल यह है कि अपनी मूल लागत से कई गुना ज्यादा कीमत पर बिक रही दवाइयों की कीमतों में फिर से इजाफे का औचित्य क्या है? दरअसल आप से जो ये 1.7 प्रतिशत राशि वसूली जाएगी, उससे दवाई कंपनियां मालामाल होंगी.
यह खुला सच है कि भारत में दवाइयों के कारोबार में काफी गड़बड़झाला है. आप एक कंपोजिशन की दवाई किसी खास कंपनी की खरीदते हैं और मान लीजिए कि वह 50 रुपए प्रति टैबलेट है तो उसी कंपोजिशन की दवाई दूसरी कंपनी 15 रुपए प्रति टैबलेट बेच रही है. यदि आप जेनरिक दवाइयों की दुकान पर चले जाएं तो संभव है कि वही टैबलेट आपको 4 रुपए में मिल जाए.
वैसे जो जेनरिक दवाइयां आप खरीदेंगे उसमें भी कीमत दो गुना से ज्यादा ही प्रिंट होगी. ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि सरकार क्या कर रही है? नियम कहता है कि भारत सरकार के रसायन और उर्वरक मंत्रालय के रसायन व पेट्रोरसायन विभाग के अधीन काम करने वाला राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण हर साल थोक मूल्य सूचकांक के आधार पर अनुसूचित दवाओं की अधिकतम कीमतों में संशोधन करता है.
अभी कीमतों में जो इजाफा किया गया है, उसके पीछे तर्क है कि दवाइयों के निर्माण में काम आने वाले रसायनों की कीमतें बढ़ी हैं. आपकी जानकारी के लिए बता दें कि भारत में दवाइयां बनाने वाली कंपनियों की संख्या 3000 से ज्यादा है और उनमें से 90 प्रतिशत से अधिक निजी क्षेत्र की कंपनियां हैं. दस प्रतिशत कंपनियां सरकारी हैं लेकिन वे भी कीमतों के खेल में शामिल हैं.
करीब 4 साल पहले यह मामला सामने आया था कि एक सरकारी दवाई कंपनी निजी कंपनियों से 50 पैसे प्रति टैबलेट के हिसाब से खरीदी करती थी और अपना लेबल चढ़ा कर मरीजों को 10 रुपए प्रति टैबलेट बेच रही थी. अब एक गड़बड़झाला और समझिए. भारत में 10 हजार से ज्यादा दवाइयां बनाई जाती हैं जिनमें से करीब एक हजार दवाइयां ही सरकार की जरूरी सूची में शामिल हैं.
यानी इन्हीं दवाइयों की कीमतों पर सरकार लगाम लगा सकती है. वैसे बाकी दवाइयों की कीमतों के लिए एक नियम तय है. कच्चे माल की कीमत, बनाने की लागत, कंपनी का मुनाफा, वितरक का मार्जिन और रिटेलर का मार्जिन जोड़ कर दवाई की कीमत तय की जानी चाहिए लेकिन जरूरी सूची से बाहर की शेष 9 हजार दवाइयों की कीमतें दवाई कंपनियां अपने मनमाफिक तय करा लेती हैं.
यह स्वीकार करना बड़ा कठिन है कि इसमें सरकारी अधिकारियों की कोई मिलीभगत नहीं होती होगी! अब मधुमेह के मरीजों की जिंदगी बचाने वाले इंसुलिन की कीमतों के बारे में जानिए. इंसुलिन कई तरह की होती हैं. पिछले कुछ वर्षों में लाॅन्ग एक्टिंग इंसुलिन की कीमतें लगातार बढ़ती जा रही हैं जबकि अन्य प्रकार के इंसुलिन की कीमतें घटी हैं.
भारत में दवाई की कीमतों के नेक्सस को लेकर सवाल निरंतर उठते रहे हैं लेकिन कोई कार्रवाई नहीं होती. प्रसंगवश याद दिला दें कि राजनीतिक पार्टियों को चंदा देने वाली कंपनियों की जो सूची सामने आई थी उसमें कई दवा कंपनियां भी थीं! सवाल है कि ये कंपनियां राजनीतिक पार्टियों को चंदा क्यों देती हैं?