‘नॉनवेज’ दूध: लालच की पराकाष्ठा और सभ्यताओं के बीच का फर्क, गायों को खिलाए जाने वाले चारे के रूप...

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: July 23, 2025 03:18 IST2025-07-23T03:18:17+5:302025-07-23T03:18:17+5:30

अमेरिका सहित दुनिया के कई देशों में गायों को खिलाए जाने वाले चारे के रूप में सस्ते प्रोटीन के लिए सुअर, मुर्गी, मछली, घोड़े की चर्बी और खून का इस्तेमाल किया जा रहा है. ऐसी गायों से मिलने वाला दूध ‘नॉनवेज मिल्क’ कहलाता है.

‘Non-veg’ milk heightgreed difference between civilizations countries world including America, pig, chicken, fish, horse fat blood used feed cows cheap protein blog Hemdhar Sharma | ‘नॉनवेज’ दूध: लालच की पराकाष्ठा और सभ्यताओं के बीच का फर्क, गायों को खिलाए जाने वाले चारे के रूप...

सांकेतिक फोटो

Highlightsसनकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प इस दूध को भारत में खपाने की मांग पर अड़े हुए हैं.दूध या डेयरी उत्पादों को भारत में प्रवेश की अनुमति नहीं दी जा सकती,सूदखोर महाजन उसके बच्चों का भी उत्तरदायित्व उठाना चाहता है!

हेमधर शर्मा

भारत प्राचीनकाल से पशुपालक देश रहा है और गौ माता हमेशा से पूजनीय रही है (यह बात अलग है कि पिछली शताब्दियों में कुछ लालची लोगों ने ज्यादा दूध निकालने के लिए गायों के साथ क्रूरता बरतनी शुरू कर दी, जिससे गांधीजी ने गाय का दूध ही नहीं पीने की प्रतिज्ञा कर डाली थी). दुनिया में ऐसे दूध को भी कभी ‘नॉनवेज’ बना दिया जाएगा, यह बात शायद अधिकांश भारतीय सपने में भी नहीं सोच सकते थे.

लेकिन आज यह कोई कल्पना नहीं बल्कि क्रूर हकीकत है. अमेरिका सहित दुनिया के कई देशों में गायों को खिलाए जाने वाले चारे के रूप में सस्ते प्रोटीन के लिए सुअर, मुर्गी, मछली, घोड़े की चर्बी और खून का इस्तेमाल किया जा रहा है. ऐसी गायों से मिलने वाला दूध ‘नॉनवेज मिल्क’ कहलाता है.

इन दिनों अमेरिका के साथ चल रही व्यापार वार्ता में वहां के सनकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प इस दूध को भारत में खपाने की मांग पर अड़े हुए हैं. हालांकि भारत ने सख्त लहजे में अमेरिका से कह दिया है कि ऐसे दूध या डेयरी उत्पादों को भारत में प्रवेश की अनुमति नहीं दी जा सकती,

लेकिन ट्रम्प के ढीठ स्वभाव को देखते हुए यह आशंका निराधार नहीं है कि वे आसानी से हार नहीं मानेंगे और शाकाहारी भारतीयों को मांसाहारी दूध परोसने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाएंगे. कहते हैं आधी शताब्दी से भी ज्यादा पहले जब भारत की कालजयी फिल्म ‘मदर इंडिया’ को ऑस्कर पुरस्कार के लिए भेजा गया तो पश्चिमी समीक्षकों को यह समझ में ही नहीं आया कि फिल्म की नायिका पति के पलायन के बाद महाजन द्वारा दिया गया शादी का प्रस्ताव अस्वीकार क्यों करती है जबकि सूदखोर महाजन उसके बच्चों का भी उत्तरदायित्व उठाना चाहता है!

दरअसल यह दो सभ्यताओं के नैतिक मूल्यों के बीच का फर्क था. शादी को महज एक कानूनी ‘एग्रीमेंट’ समझने वाला पश्चिम का मानस यह समझ ही नहीं सकता था कि हमारे यहां इसे सात जन्मों का बंधन माना जाता है (हालांकि अब हम भी पश्चिमी सभ्यता के रंग में ही रंगते जा रहे हैं). यह अकारण नहीं है कि आज भी हमारी फिल्में पश्चिम के ‘ऑस्कर’ के पैमाने पर खरी नहीं उतर पातीं.

इसलिए असंभव नहीं है कि ट्रम्प को भारत की गौ माता से मिलने वाले ‘अमृत’ और अमेरिका के नॉनवेज दूध के बीच फर्क समझ में ही नहीं आ रहा हो! व्यापारिक बुद्धि वाले ट्रम्प को यही लग रहा होगा कि अपने आठ करोड़ किसानों को होनेवाले एक लाख करोड़ रु. के नुकसान के डर से भारत यह डील नहीं कर रहा है!

बेशक यह नुकसान भी इस मुद्दे का एक पहलू है लेकिन इसके बिना भी क्या हम नॉनवेज दूध के आयात की कल्पना कर सकते हैं? (दुर्भाग्य से कुछ लालची लोग हमारी धार्मिक भावनाओं से बीच-बीच में खिलवाड़ करते रहते हैं, कभी वनस्पति घी में हड्डी मिलती है तो कभी भगवान को चढ़ाए जाने वाले लड्डू में देसी घी की जगह जानवरों की चर्बी मिलाए जाने का पता चलता है).

महात्मा गांधी ने सौ से भी अधिक साल पहले ही अपनी पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ के जरिये हमें आत्मनिर्भरता का मंत्र समझाने की कोशिश की थी लेकिन बाद में हम भूमंडलीकरण की आंधी में ऐसे उड़े कि बेपेंदी का लोटा ही बन गए! शायद हमें उम्मीद थी कि भूमंडलीकरण हमारे गुणों का होगा जिससे सारी मानव जाति को फायदा होगा, लेकिन दुर्भाग्य से ग्लोबलाइजेशन हम मनुष्यों के दुर्गुणों का हो गया!

गांधीजी ने कहा था कि मैं दुनियाभर की सभ्यताओं के स्वस्थ सांस्कृतिक प्रभावों के लिए अपने खिड़की-दरवाजे खुले रखूंगा मगर इसकी इजाजत नहीं दूंगा कि वह आंधी बनकर मेरे घर को ही उड़ा ले जाए. लेकिन उनके जाते ही पश्चिम से आई आंधी ने हमारी सभ्यता को तहस-नहस कर डाला. क्या अब फिर से उसे दुरुस्त करने का समय नहीं आ गया है!

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