योग: कर्म में कुशलता हासिल करने की कला, शरीर, मन और आत्मा को साधने की प्रक्रिया
By गिरीश्वर मिश्र | Updated: June 21, 2025 06:10 IST2025-06-21T06:10:47+5:302025-06-21T06:10:47+5:30
International Yoga Day 2025: बदलाव या अभिवृद्धि न हो तो ज्ञान या कर्म किसी स्तर पर विकास या प्रगति की कोई संभावना नहीं बनेगी. यह तो मृत होने की स्थिति है.

सांकेतिक फोटो
International Yoga Day 2025: शब्द बड़े चमत्कारी और शक्तिशाली उपकरण होते हैं. आज योग एक बड़ा ही लोकप्रिय शब्द हो गया है. शाब्दिक अर्थ को लें तो योग यानी जोड़, जोड़ने की प्रक्रिया और जोड़ने के परिणाम दोनों को ही व्यंजित करता है. ध्यान से विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि योग एक बड़ी ही सर्जनात्मक अवधारणा की ओर ध्यान दिलाता है. आप जैसे हैं वैसे ही निश्चेष्ट बने रहें या कहें कि आपमें कोई योग अथवा जोड़ न हो, कोई बदलाव या अभिवृद्धि न हो तो ज्ञान या कर्म किसी स्तर पर विकास या प्रगति की कोई संभावना नहीं बनेगी. यह तो मृत होने की स्थिति है.
इसीलिए उपनिषद में ऋषि ने प्रार्थना की- मृत्योर्मामृतं गमय. अर्थात् मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो. आमफहम भाषा में योग का एक दूसरा अर्थ अवसर भी होता है. इसी आशय से बातचीत में अक्सर कहा जाता है कि इसका योग (मुहूर्त!) नहीं बन रहा है या योग ही नहीं बैठ रहा है.
यहां पर यह कहना जरूरी है कि अवसर स्वतः अपने आप घटित होने वाला कोई आकस्मिक संयोग नहीं होता बल्कि उसके लिए मनुष्य को प्रयत्न करना पड़ता है. दुर्भाग्य से आजकल योग शब्द का प्रयोग एक बिकाऊ वस्तु के रूप में रूढ़ होता जा रहा है. अनेक लोग इस शब्द का उपयोग शारीरिक आसनों और प्राणायाम अर्थात् सांसों को नियमित करने के तरीकों को बताने के लिए करते हैं.
योग का यह भी एक अर्थ है पर निश्चय ही बड़ा सीमित अर्थ है. श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कृष्ण ने कर्म में कुशलता यानी दक्षता प्राप्त करने के रूप योग की अवधारणा को समझाया है. उनके शब्द हैं : योग: कर्मसु कौशलं. इस अर्थ में योग अपने कार्य को उत्कृष्ट बनाने की कला है. यम, नियम, आसन, प्राणायाम, ध्यान, धारणा और समाधि के आठ अंग शरीर, मन और आत्मा को साधने की प्रक्रिया के ही अवयव हैं.
कार्य में उत्कृष्टता कितनी उपयोगी है यह बताने की आवश्यकता नहीं है. गति, उत्तेजना और क्रियाशीलता को लगातार बढ़ते हुए अनुभव करते रहना लोगों का पसंदीदा व्यसन हो रहा है और उससे ही अधिकाधिक सुख पाने की चेष्टा की जाती है. इस प्रवृत्ति का सबसे बुरा असर हमारे ध्यान की क्षमता और आदत पर पड़ रहा है.
ध्यानावस्थित होने की बात तो दूर किसी बात या वस्तु पर ध्यान देने की हमारी क्षमता ही तेजी से घटती जा रही है और उसी के साथ स्मरण शक्ति भी घट रही है. और तो और, किसी चित्र पर हमारी आंख सिर्फ कुछ पल के लिए ही टिक पाती है. बिना ध्यान दिए वस्तुएं पकड़ में नहीं आतीं और मानस पटल पर अंकित नहीं होतीं, न हमें उनकी धारणा ही होती है . फलतः वे जल्द भूल जाती हैं.
आज तटस्थ भाव से आत्मावलोकन और आत्मपरीक्षा जीवन की एक बड़ी आवश्यकता हो चली है. इसी से मानवीय विवेक का उदय होगा. इसके लिए योग की सहायता से हम स्वयं अपनी अंतर्यात्रा करते हैं. यानी अपने भीतर झांकते हुए शरीर, मन और आत्मा के साथ संवाद करते हैं और अपनी कमियों को दूर करते हुए आत्मोन्नयन के लिए उद्यत होते हैं.
जीवन के विस्तृत प्रांगण में आनंद और सौंदर्य अपने सीमित स्व से परे जाकर ही मिलता है. योग इसी का प्रशस्त यात्रापथ है जिसका उद्देश्य अपने स्वरूप को पहचान कर अपने नियत कर्तव्य पर आगे बढ़ना है. कर्म में कुशलता ले आने का प्रयोजन अपना तथा अपने देश और समाज का अभ्युदय करना है.