Delhi Pollution: प्रकृति का दम घोंटते मनुष्य और मनुष्यों का दम घोंटता प्रदूषण?, घर के भीतर रहकर क्या बच जाएंगे?
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: November 27, 2024 05:20 IST2024-11-27T05:20:30+5:302024-11-27T05:20:30+5:30
Delhi Pollution: भारी ट्रैफिक जाम से बेहाल होने वाले दिल्ली जैसे शहरों की सड़कों पर क्या सचमुच इतनी तेज रफ्तार की जरूरत है कि हम चाहकर भी साइकिल जैसे पर्यावरण पूरक वाहनों से अपना दैनंदिन काम न निपटा सकें?

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Delhi Pollution: रिकॉर्डतोड़ प्रदूषण से इन दिनों दिल्ली का दम घुट रहा है. लोगों को बेवजह घर से बाहर नहीं निकलने की सलाह दी जा रही है. लेकिन घर के भीतर रहकर क्या वे प्रदूषण से बच जाएंगे? इतना जरूर है कि बाहर निकलने की प्रक्रिया में वे जो और प्रदूषण फैलाते, पर्यावरण को उससे निजात मिल सकेगी. लोगों को वे दिन भूले नहीं होंगे जब कोरोनाकाल में लॉकडाउन के दौरान उन्हें मजबूरन अपने घरों में कैद रहना पड़ा तो प्रकृति में कितना निखार आ गया था! बेशक तेज रफ्तार वाहन आज हमारी तेज रफ्तार जिंदगी का अनिवार्य हिस्सा बन गए हैं, लेकिन आए दिन भारी ट्रैफिक जाम से बेहाल होने वाले दिल्ली जैसे शहरों की सड़कों पर क्या सचमुच इतनी तेज रफ्तार की जरूरत है कि हम चाहकर भी साइकिल जैसे पर्यावरण पूरक वाहनों से अपना दैनंदिन काम न निपटा सकें?
साइकिल से चलने की कुछ अपनी दिक्कतें अवश्य हैं, लेकिन उन्हें दूर करना और साइकिलों के लिए अलग लेन बनाना क्या इतना कठिन है कि हम प्रदूषण से दम घुटने की नौबत आने पर भी ऐसा न कर सकें? आखिर बेल्जियम, नीदरलैंड, इटली, जर्मनी, ब्रिटेन जैसे यूरोपीय देश तो ऐसा उदाहरण पेश कर ही रहे हैं!
दार्शनिक लियोनार्ड कोहेन ने कहा है कि ‘आंखें जब देखने की आदी हो जाती हैं तो खुद को आश्चर्य के विरुद्ध ढाल लेती हैं.’ प्रदूषण के बीच जीवन गुजारते हुए क्या हम इसके इतने आदी हो गए हैं कि अब हमें यह अस्वाभाविक नहीं लगता? कूड़े-कचरे के बीच रहने वाला आदमी उस वातावरण का शायद इतना आदी हो जाता है कि उसे वही स्वाभाविक लगने लगता है!
ट्रेनों में सफर के दौरान जिन इलाकों से हम नाक दबाकर गुजर जाना चाहते हैं, उन्हीं इलाकों में हजारों लोग अपना घर बनाकर रहते हैं. प्लास्टिक के बारे में कहा जाता है कि वह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, लेकिन समुद्री जीवों के अध्ययन में पाया गया है कि माइक्रो प्लास्टिक उनके खून में घुल-मिल गया है. क्या हमारे खून में भी प्रदूषण घुल-मिल गया है?
पर्यावरणविदों की लाख चिंताओं के बावजूद क्या हम इसीलिए बेफिक्र बने रहते हैं कि हमारा शरीर पर्यावरण प्रदूषण के मुताबिक खुद को ढाल लेगा? वैश्विक मार्केट रिसर्च फर्म इप्सोस के एक सर्वे के अनुसार जलवायु परिवर्तन को सिर्फ 13 प्रतिशत भारतीय ही चिंता का प्रमुख विषय मानते हैं. दुनिया के स्तर पर यह आंकड़ा थोड़ा सा बेहतर अर्थात 16 प्रतिशत है.
आंकड़े सिर्फ कागजी नहीं हैं, इसकी गवाही हम अपने कामों से भी दे रहे हैं. धड़ल्ले से जलाई जा रही पराली से दिल्ली गैस चेम्बर बनकर रह गई है. गंगा अब हिमालय में भी प्रदूषणमुक्त नहीं रह गई है क्योंकि श्रद्धालुओं के सैलाब से पैदा होने वाले प्रदूषण को शोधित करने के बजाय सीधे गंगाजी में ही डाला जा रहा है.
जलवायु परिवर्तन पर चिंता जताने के नाम पर हम वैश्विक सम्मेलन आयोजित करते हैं और दूसरी तरफ हथियारों का उत्पादन बढ़ाकर युद्धों में उनका धुआंधार इस्तेमाल भी करते हैं. इस पाखंड का क्या कभी अंत होगा? कहावत है कि सोते हुए व्यक्ति को जगाया जा सकता है.
लेकिन सोने का नाटक करने वाले को नहीं. अभी दो-तीन साल पहले ही कोरोना महामारी ने अपना रौद्र रूप दिखाते हुए हमें चेताया है कि विनाश असम्भव नहीं है. लेकिन हम मनुष्य क्या यह साबित करने पर तुले हैं कि हमें जगाना सम्भव नहीं है?