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गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉगः शिक्षा क्षेत्र को आखिर कब तक करनी होगी प्रतीक्षा?

By गिरीश्वर मिश्र | Updated: December 12, 2019 10:32 IST

दिल्ली और अन्य कई अच्छे विश्वविद्यालयों के अध्यापक वहां ऊंचे  वेतन, सुविधा और स्वायत्तता के आकर्षण में पहुंच रहे हैं. उच्च वर्ग के छात्र ऊंची फीस देकर वहां पढ़ाई कर रहे हैं. जबकि सरकारी विश्वविद्यालयों की स्थिति विकट से विकटतर होती जा रही है.

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कथनी और करनी में अंतर का जो अहसास आज भारत की शिक्षा की दुनिया में है वह शायद ही कहीं और हो. पुस्तकों का ज्यादा भार हो या सांस्कृतिक संवेदना और चरित्र निर्माण की बात हो या फिर मातृभाषा में आरंभिक शिक्षा, हम कोई निर्णायक समाधान करने के लिए तैयार ही नहीं हो पाते. ऊपर से मुश्किल यह भी है कि जो लोग अधकचरी व्यवस्था से गुजर कर जैसे तैसे डिग्री पा लेते  हैं वे इस प्रक्रिया के अंग बन कर इसे और नीचे की तह तक ले जाने में सहायक सिद्ध होते हैं. क्रमश: वरिष्ठ होकर वे ही विशेषज्ञ और निर्णायक की भूमिका में शामिल हो जाते हैं. उनके ज्ञान और नैतिकता के मानक समझौते पर टिके होते हैं. यह क्रम चल पड़ा है और इस पर कोई रोक नहीं लग पा रही है. अयोग्यता और अनियंत्रित विस्तार का एक परिणाम बेरोजगारों की फौज तैयार होना भी है.

सरकार द्वारा आयोजित और संचालित औपचारिक शिक्षा स्वयं में अपर्याप्त है. वह कोई भी अगली  प्रतियोगी परीक्षा पास करने के लिए नाकाफी होती है. बैसाखी के रूप में इनमें पढ़ने वाले छात्रों के लिए  ट्यूशन और कोचिंग लगभग अनिवार्य बात हो गई है. इनका व्यवसाय खूब फलफूल रहा है और इसमें प्रतिवर्ष इजाफा भी हो रहा है. इसके तनाव का खामियाजा हम अक्सर सुनते देखते रहते हैं. निजी क्षेत्र में शिक्षा का विस्तार जिस तरह हो रहा है उसके कई परिणाम हो रहे हैं. 

दिल्ली और अन्य कई अच्छे विश्वविद्यालयों के अध्यापक वहां ऊंचे  वेतन, सुविधा और स्वायत्तता के आकर्षण में पहुंच रहे हैं. उच्च वर्ग के छात्र ऊंची फीस देकर वहां पढ़ाई कर रहे हैं. जबकि सरकारी विश्वविद्यालयों की स्थिति विकट से विकटतर होती जा रही है. चारों ओर अध्यापकों का टोटा पड़ा है. हर जगह कामचलाऊ ढंग से पढ़ाई-लिखाई  चालू है. देश का सिरमौर दिल्ली विश्वविद्यालय बिना उचित अध्यापन व्यवस्था के वर्षों से अध्यापन कार्य चला रहा है. स्थायी नियुक्ति नहीं हो रही है और अब तदर्थ की नियुक्ति भी बंद कर दी गई  है. गुणवत्ता लाने की बात तो दूर की कौड़ी है अभी तो शिक्षा की जीवन रक्षा या सर्वाइवल का सवाल खड़ा हो गया है. जरूरी है कि शिक्षा की जरूरतों का मूल्यांकन कर तत्काल आवश्यक व्यवस्था सुनिश्चित हो.

हम आशा करते  हैं कि शिक्षा के सेस से संसाधन उपलब्ध कराने में मदद मिलेगी. शिक्षा मंत्री ने भरोसा दिलाया है कि नई शिक्षा नीति आने ही वाली है और उसमें सुचिंतित समाधान की कोशिश की गई है. उम्मीद है कि विचार और  कार्यान्वयन का समयबद्ध कार्यक्र म भी प्रस्तुत किया जाएगा. शिक्षा पर लटका फैसला अविलंब आएगा और हम सुशिक्षित और सुसंस्कृत भारत के निर्माण की दिशा में आगे बढ़ सकेंगे.

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