सपनों के सौदागर ने छोटे देशों को मुश्किल में डाला

By राजेश बादल | Published: August 28, 2018 09:44 PM2018-08-28T21:44:54+5:302018-08-28T21:44:54+5:30

वन बेल्ट वन रोड की आड़ में छोटे देश उसके शिकार बन जाएंगे।  विडंबना है कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय इस अनैतिक कारोबारी साजिश पर चुप्पी साधे हुए है।  सारा चक्कर समझने के लिए मलेशिया की कहानी जानना जरूरी है। 

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सपनों के सौदागर ने छोटे देशों को मुश्किल में डाला

चीनी राष्ट्रपति की महत्वाकांक्षा अनेक देशों पर भारी पड़ रही है।  कई देश चीन के चक्कर में बर्बादी की राह पर हैं।  श्रीलंका का हंबनटोटा बंदरगाह चीन ने हड़पा तो मलेशिया के कान खड़े हुए और उसने समय रहते पैर वापस खींच लिए।  मगर पाकिस्तान जैसे अन्य मुल्क भी हैं जो समय की स्लेट पर लिखी इबारत नहीं पढ़ रहे हैं।  वह दिन दूर नहीं, जब चीन उन्हें आर्थिक गुलाम बना लेगा।  

वन बेल्ट वन रोड की आड़ में छोटे देश उसके शिकार बन जाएंगे।  विडंबना है कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय इस अनैतिक कारोबारी साजिश पर चुप्पी साधे हुए है।  सारा चक्कर समझने के लिए मलेशिया की कहानी जानना जरूरी है। 

मलेशिया ने तीन बड़ी परियोजनाओं पर चीन से समझौते किए थे।  इनमें दो गैस पाइप लाइन से संबद्ध थे और एक देश के पूर्वी किनारे को दक्षिण थाईलैंड और कुआलालम्पुर से जोड़ने वाली रेल परियोजना थी।  ये परियोजनाएं करीब 23 अरब डॉलर की थीं।  कुछ समय बाद मलेशिया को चीन की शर्तो में कुछ और छिपी हुई गंध आने लगी।  उसे लगा कि वह चीन का कर्ज कभी भी नहीं अदा कर पाएगा। 

 लिहाजा बीते दिनों मलेशिया के प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद पांच दिन के लिए चीन गए और विनम्रता से नामंजूर करके लौट आए।  एक महाशक्ति से टकराने की ताकत भी मलेशिया की नहीं है।  अब उन्होंने कहा है कि उनका देश समझौतों की नए सिरे से समीक्षा करेगा।  इन समझौतों के मुताबिक मलेशिया को एक बड़ी रकम खर्च करनी थी, जिसके लिए उसे चीन से ही कर्ज लेना था।

  इतना बोझ उठाने की स्थिति में मलेशिया नहीं है।  पहले ही उसका अंतर्राष्ट्रीय कर्ज 250 अरब डॉलर हो चुका है।  यह राशि मलेशिया के लिए पहाड़ जैसी है।  इसके बाद चीनी कर्ज से तो उसकी कमर  ही टूट जाती।  

अब उसका सारा ध्यान अपनी वित्तीय सेहत दुरुस्त करने पर है।  अगर चीन का पैसा वो नहीं चुका पाता तो चीन इन परियोजनाओं और मलेशिया की उस जमीन पर कब्जा कर लेता, जैसा उसने श्रीलंका में हंबनटोटा बंदरगाह के मामले में किया। 

हंबनटोटा श्रीलंका का एक दक्षिणी प्रांत है।  बड़ा बंदरगाह है।  2004 में सुनामी आई तो हंबनटोटा बर्बाद हो गया।  श्रीलंका ने सारी दुनिया से मदद मांगी।  चूंकि भारत खुद इस बड़ी आपदा का शिकार हुआ था इसलिए चीन ने अवसर का लाभ उठाया।  उसने श्रीलंका को 2007 में 307 मिलियन डॉलर का कर्ज दिया और हंबनटोटा को शानदार बंदरगाह के तौर पर विकसित किया।  

इसके बाद 2015 के चुनाव में चीन ने  राजपक्षे को चुनाव के लिए भरपूर फंड दिया।  चुनाव में राजपक्षे सिरिसेना से हार गए।  सिरिसेना भारत समर्थक माने जाते हैं।  चुनाव जीतते ही चीन ने कर्ज चुकाने का दबाव बढ़ाना शुरू कर दिया।  श्रीलंका परेशान हो गया।  हार कर उसने हंबनटोटा बंदरगाह चीन के सुपुर्द कर दिया।  अब श्रीलंका चीन की गिरफ्त से मुक्त होने के लिए छटपटा रहा है।  

तीसरा उदाहरण मालदीव का है।  तीस बरस पहले तक भारत मालदीव में बड़ी प्रभावशाली भूमिका में था।  वहां 1988 में तख्तापलट की कोशिश हुई थी।  भारत की फौज ने उसे नाकाम कर दिया था।  तख्तापलट के पीछे चीन का हाथ था।   

इसके बाद चीन ने वहां कुछ इस तरह विस्तार किया कि भारत का रंग फीका पड़ता गया।  बीते पांच साल में यह देश चीन की गोद में जाकर बैठ गया।  सन 2014 में मालदीव ने चीन के साथ मेरीटाइम सिल्क रूट और वन बेल्ट वन रोड पर संधि कर ली।  

इतना ही नहीं , दिसंबर 2017 में मालदीव की संसद ने चीन से मुक्तव्यापार का समझौता बिना बहस के पारित कर दिया।  ताजा स्थिति यह है कि चीन ने मालदीव को 2. 5 बिलियन डॉलर का कर्ज दिया है, जो मालदीव के कुल राजस्व का आधा है। 

 अब मालदीव को 2020 तक 750 मिलियन डॉलर कर्ज चीन को चुकाना है, जो मालदीव के लिए अगले सौ साल तक संभव नहीं है।  समझने के लिए एक उदाहरण काफी होगा।  चीन ने मालदीव में 300 मिलियन डॉलर का एक ठेका लिया है।  यह डेढ़ किमी लंबा पुल बनाने का है।  मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद का कहना है कि यह काम 75 मिलियन डॉलर से अधिक नहीं है।  

इसका न कोई टेंडर हुआ न किसी को संधि की शर्ते पता हैं।  सब गोपनीय है।  अब आइए लाओस की दुर्दशा देखें।  वहां कुल वित्तीय घाटे का 44 फीसदी चीन से लिया गया कर्ज है।   यह राशि देश की कुल जीडीपी का 68 फीसदी है।  700 मिलियन डॉलर की रेल परियोजना के लिए 480 मिलियन डॉलर चीन ने कर्ज दिया है।  केवल 220 मिलियन  डॉलर  लाओस खर्च करेगा। 

 यहां भी कर्ज की शर्ते गोपनीय हैं।  पचपन लाख की आबादी वाले छोटे से देश लाओस के लिए अगले सौ साल तक इस गिरफ्त से बाहर निकलना संभव नहीं है।  सेंटर फॉर ग्लोबल डेवलपमेंट, वॉशिंगटन की ताजा रिपोर्ट कहती है कि आठ देश अब तक चीन की पूरी तरह गिरफ्त में आ चुके हैं।  इसी तरह एक और छोटे से देश मोंटेनीग्रो में तो विपक्ष बाकायदा आंदोलन पर उतर आया है।  

इस देश ने अपनी जीडीपी का 83 फीसदी चीन से कर्ज में फंसा दिया है। जानकारों का कहना है कि छोटे देशों के बाद मंझोले मुल्कों में अब पाकिस्तान की बारी है।  पाकिस्तान चीनी कर्ज के जाल में इतना उलझ गया है कि बाहर निकलने की सूरत भी नहीं नजर आती।  

 इमरान खान के प्रधानमंत्री बनने के बाद चीन ने दो बिलियन डॉलर का कर्ज चुपचाप दिया है।  इसकी शर्ते भी गोपनीय हैं।   दरअसल इमरान के पास चुनाव जीतने के बाद देश को दिवालिया होने से बचाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की शरण में जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।  संभव था कि मुद्रा कोष मना कर देता।  ऐसे में पाकिस्तान की बदनामी होती और बाजार में पाकिस्तान औंधे मुंह गिरता।  

चीन इसी साल अपने बैंकों की शाखाएं पाकिस्तान में खोल चुका है।  उसकी करेंसी धड़ल्ले से पाकिस्तान में चल रही है।  इसके बाद और किसी सबूत की क्या जरूरत रह जाती है? 

चीन की कर्ज साजिश के जाल में फंसे देशों के लिए निकलना मुश्किल है।  वह अपने बैंकों और अपनी कंपनियों को इसमें प्रमोट कर रहा है।  संदेह में डालने वाली सबसे बड़ी बात कर्ज की शर्तो का एकदम गोपनीय होना है।  

आज विश्व बाजार की स्थितियों को देखते हुए इसमें दाल में काला तो है मगर पश्चिम और यूरोप की चुप्पी भी सवाल खड़े करती है।  क्या यह चौंकाने वाली बात नहीं है कि वन बेल्ट वन रोड परियोजना में चीनी कंपनियों पर अपनी कुल क्षमता का दस गुना ज्यादा बोझ है और इनमें से ज्यादातर के मालिक चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के नेता हैं।  चीनी परियोजना में कुल 78 देश शामिल हैं।  

इनमें अधिकतर की अपनी अर्थव्यवस्था लड़खड़ाई हुई है।  वॉशिंगटन के थिंक टैंक आर डब्ल्यू आर सलाहकार समूह के प्रमुख एंड्रयू डेवनपोर्ट के मुताबिक इन देशों में निवेश खतरे से खाली नहीं है।  डर है कि सपनों का सौदागर अपने जाल में ही न फंस जाए।  

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