रंगनाथ सिंह का ब्लॉग: इत्तेफाक भी क्या चीज है, युसूफ खान को दिलीप कुमार बना देता है

By रंगनाथ सिंह | Published: July 7, 2021 01:22 PM2021-07-07T13:22:30+5:302021-07-07T13:22:30+5:30

फिल्म अभिनेता दिलीप कुमार (1922-2021) नहीं रहे। हिन्दी सिनेमा के सर्वश्रेष्ठ अभिनेताओं में शुमार किये जाने वाले दिलीप कुमार संयोगवश ही अदाकारी की दुनिया में आ गये। दिलीप कुमार के करियर और उनकी आत्मकथा से गुजरने के बाद लगता है कि जिन्दगी भी क्या चीज है, एक इत्तेफाक आदमी को कहाँ से कहाँ पहुँचा देता है।

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दिलीप कुमार का जन्म 11 दिसम्बर 1922 को अविभाजित भारत के पेशावर में हुआ था।

दिलीप कुमार नहीं रहे। हिन्दी सिनेमा में जितना बड़ा उनका कद था, उन्हें उतनी ही लम्बी उम्र मिली। दिलीप कुमार के बारे में सोचने पर लगता है कि एक संयोग, एक हादसा आदमी की तकदीर और मुस्तकबिल दोनों को किस कदर बदल सकता है कि एक बारगी यकीन न आये। 

आज दुनिया जानती है कि दिलीप कुमार बनने से पहले वो युसूफ खान थे। भारत विभाजन से पहले 1922 में वो पेशावर में पैदा हुए। बचपन में ही मुम्बई (तब बॉम्बे) आ गये। नासिक स्थित इंग्लिश मीडियम बोर्डिंग स्कूल में पढ़े। पिता से नाराज होकर घर छोड़कर पुणे चले गये। पुणे में सैन्य कैंटोनमेंट में एक कैंटीन चलाने लगे। पैसे कमाकर घर लौटे। अब मुम्बई में ही काम ढूंढने लगे।

काम खोजने की उधेड़बुन में एक दिन युसूफ खान घर से निकले कि उनकी मुलाकात अपने परिचित डॉ मसानी से हो गयी। युसूफ खान ने डॉक साहब को बताया कि वो काम ढूँढ रहे हैं। डॉक्टर मसानी उस वक्त बॉम्बे टॉकीज फिल्म स्टूडियो की मालकिन देविका रानी के पास जा रहे थे। डॉक्टर साब ने कहा, मेरे साथ चलो। शायद देविका रानी के पास कुछ काम निकल आये।

डॉक्टर मसानी ने नौजवान युसूफ खान को देविका रानी से मिलाते हुए कहा कि ये काम ढूँढ रहे हैं। उस दौर में भी भारत के अमीर लोग निजी जीवन में इंग्लिश बोलना पसन्द करते थे। युसूफ खान मशहूर इंग्लिश मीडियम बोर्डिंग स्कूल  से पढ़े थे तो उनकी अंग्रेजी जाहिर तौर पर अच्छी थी। जाहर है कि देविका रानी से उनकी शुरुआती गुफ्तगू भी अंग्रेजी में हुई होगी।

जब डॉक्टर मसानी ने देविका रानी से नौजवान के लिए काम की दरयाफ्त की तो मशहूर अभिनेत्री और फिल्म निर्माता ने कहा कि उन्हें एक नए लड़के की जरूरत तो है। फिर देविका रानी ने पलटकर युसूफ से  पूछा आप उर्दू बोल लेते हैं? युसूफ खान ने कहा, बहुत अच्छी तरह।

दिलीप कुमार के पहले गुरु अशोक कुमार

Actor Ashok Kumar
Actor Ashok Kumar
देविका रानी ने मासिक तनख्वाह पर युसूफ को काम पर रख लिया। दिलीप कुमार की आत्मकथा 'Dilip Kumar: The substance and the shadows'  के अनुसार देविका रानी ने पहले कुछ महीने युसूफ को बॉम्बे टॉकीज के मशहूर स्टार अशोक कुमार के साथ रहकर फिल्मी दुनिया का कामकाज समझने का काम सौंपा। 

अशोक कुमार तब बड़े स्टार थे। दिलीप कुमार और देव आनन्द दोनों ने अपनी आत्मकथाओं में जिक्र किया है कि वो दोनों ही किशोरावस्था में अशोक कुमार के फैन हुआ करते थे। बकौल दिलीप कुमार अशोक कुमार बेहद सरल, मिलनसार और सौम्य शख्सियत का मालिक थे।

अशोक कुमार लोकल ट्रेन से ही स्टूडियो आया-जाया करते थे। दिलीप कुमार भी उनके साथ सफर किया करते थे। अशोक कुमार जब शूटिंग कर रहे होते थे तो युसूफ खान उनके आसपास रहकर अभिनय और फिल्म निर्माण की बारीकियों पर गौर किया करते थे। दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा में अशोक कुमार के संग बिताये उन दिनों को बहुत मोहब्बत से याद किया है।

युसूफ खान की पहली फिल्म ज्वारभाटा आयी तो उन्हें दिलीप कुमार नाम मिला। बकौल दिलीप कुमार, वह नहीं चाहते थे कि सिनेपर्दे पर उनका नाम युसूफ खान जाये क्योंकि उनके पिता को फिल्मों में काम करना पसन्द नहीं था। बॉम्बे टॉकीज ने कुमुद कुमार गांगुली को अशोक कुमार बनाकर पर्दे पर पेश किया और वह बड़े स्टार बन गये। देविका रानी के दिलीप कुमार नाम चुनने के पीछे भी शायद अशोक कुमार के स्टारडम की प्रेरणा रही हो।  

मेथड एक्टर दिलीप कुमार

Actor Dilip Kumar
Actor Dilip Kumar
ज्वारभाटा (1944) के रिलीज होने के साथ ही हिन्दी सिनेइतिहास में एक नया सुनहरा अध्याय जुड़ गया। सिनेजगत को हर दिल अजीज अदाकार मिला। दिलीप कुमार हर किरदार के तजुर्बात से वाबस्ता होकर उसे निभाना पसन्द करते थे। जब हॉलीवुड में 'मेथड एक्टिंग' का जुमला प्रचलित हुआ तो दिलीप कुमार को भारत का पहला मेथड एक्टर कहा जाने लगा क्योंकि ताँगेवाले का किरदार निभाने के लिए उन्होंने ताँगा चलाकर देखा, फिल्म में तबला बजाने के लिए असल जिन्दगी में तबला बजाकर देखा। 

करीब 22 साल की उम्र में सन् 1944 से शुरू हुए अपने पाँच दशक लम्बे फिल्मी करियर में दिलीप कुमार ने शहीद (1948), देवदास (1954), नया दौर (1957), मुगले आजम (1960), गंगा-जमुना (1961), राम और श्याम (1967), सगीना महतो (1970), क्रान्ति (1981), शक्ति (1982), कर्मा (1986), सौदागर (1991) जैसी यादगार फिल्में दीं।  लेकिन यह सब शुरू कहाँ से हुआ? नौकरी की तलाश में घर से निकले एक नौजवान का एक फैमिली फ्रेंड डॉक्टर से टकरा जाने से। 

उस नौजवान ने उसके पहले कभी सिनेमा वगैरह के बारे में सोचा भी नहीं था। वह सिनेमा वगैरह देखता भी नहीं था। यह जरूर था कि वह जहीन और मेहनती था। कैंटीन चलाने का काम भी उसने दिल से किया। एक्टिंग का काम मिल गया तो उसे भी दिलोजान से किया। ऐसा किया कि दुनिया याद रखेगी।

 

 

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