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चीन प्रमुख मुद्दा बना है पश्चिमी देशों के आम चुनाव में, ब्रिटेन, अमेरिका से लेकर ऑस्ट्रेलिया तक मान रहे 'चीन को खतरा'

By आशीष कुमार पाण्डेय | Updated: August 15, 2022 14:26 IST

पश्चिमी देशों में होने वाले आम चुनाव में मुद्रास्फीति और मंदी के खतरे के साथ-साथ चीन भी राजनीतिक चर्चा के केंद्र में है।

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ठळक मुद्देविश्व के विकसित देश चीन को अर्थव्यवस्था के साथ सामरिक दृष्टि से भी भारी चुनौती मान रहे हैं ब्रिटेन में प्रधानमंत्री चुनाव में हिस्सा ले रहे ऋषि सनक और लिज़ ट्रस के भाषणों में चीन छाया हुआ है पश्चिमी देश लगातार चीन के साथ व्यापार और सामरिक क्षेत्र में संतुलन बनाने की मांग कर रहे हैं

लंदन:चीन की मौजूदा वैश्विक स्थिति अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया समेत कई देशों के लिए चिंता का सबब बना हुआ है। विश्व के विकसित देश चीन को केवल अर्थव्यवस्था के लिहाज से नहीं बल्कि सामरिक दृष्टि से भी भारी चुनौती मान रहे हैं।

यही कारण है के इन देशों में होने वाले आम चुनाव मुद्रास्फीति और मंदी के खतरे के साथ-साथ चीन भी राजनीतिक विमर्ष के केंद्र में है। इन देशों में चलने वाले चुनावी अभियान में राजनीतिक दल जनता के बीच विभिन्न मुद्दों के साथ "चीन के खतरे" का भय भी जाहिर कर रहे हैं।

इसका सबसे ताजा उदाहरण ब्रिटेन में होने वाला आम चुनाव है। जिसमें प्रधानमंत्री की रेस में सबसे आगे चल रहे लिज़ ट्रस और भारतीय मूल के ऋषि सनक पिछले महीने एक टीवी बहस में एक-दूसरे को चुनौती दे रहे हैं कि चीन के साथ सख्त विदेश नीति को सबसे ज्यादा तरजीह देगा।

बीते कुछ वर्षों में विश्व के कई देश चीन की सैन्य शक्ति, जासूसी और उसके मानवाधिकार रिकॉर्ड की खराब स्थिति पर चिंता प्रगट कर रहे हैं और साथ में चीन, जो कि दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। उसके साथ व्यापार और निवेश को बढ़ावा देने के लिए संतुलन बनाने की मांग कर रहे हैं।

पिछले हफ्ते यूएस हाउस स्पीकर नैन्सी पेलोसी की ताइवान यात्रा के बाद चीन ने अमेरिका, यूरोपीय देशों, जापानी और ऑस्ट्रेलिया को स्पष्ट धमकी देते हुए इस मामले से दूर हो जाने को कहा और साथ में सैन्य अभ्यास करके स्पष्ट कर दिया कि वो वैश्विक संबंधों के लिए अपनी संप्रभुता से समझौता नहीं करेगा। इस पूरे मामले में एक बात और सामने आ रही है और वो है बीजिंग ने पश्चिमी देशों की खुफिया एजेंसियों के भी जासूसी करने से बाज आने के लिए कहा है।

वहीं चीन की साम्यावादी खतरे को समझते हुए लोकतांत्रिक देशों में कराये गये जनमत सर्वेक्षण में जनता ने चीन के खिलाफ अपनी भावनाओं को व्यक्त किया है। यही कारण है कि पश्चिम में होने वाले चुनाव में भाग्य आजमा रहे उम्मीदवार चीन को दुनिया के लिए सुरक्षा के लिए खतरा पैदा करने वाला और घरेलू आर्थिक संकट के लिए जिम्मेदार ठहरा रहे हैं।

मई में ऑस्ट्रेलिया के चुनाव में  रूढ़िवादी दल चुनाव हार गये क्योंकि उन्होंने जनता के बीच विपक्ष पर आरोप लगाया कि वो बीजिंग के सामने खड़े होने के लिए तैयार नहीं है। वहीं वैश्विक मंच पर सबसे मजबूत अमेरिका में पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा चीन विरोधी रूख के कारण अमेरिकी कांग्रेस की दौड़ में शामिल होने की राजनीतिक दलों ने चीन का खुलकर विरोध किया।

ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के नागरिकों की तरह यूरोप में भी कई लोग चीन के प्रति अपने दृष्टिकोण को तेजी से बदल रहे हैं। हालांकि फ्रांस और जर्मनी में हुआ आम चुनावों में चीन कहीं से भी महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं था।

चीन में विशेषज्ञता वाले नॉटिंघम विश्वविद्यालय के राजनीतिक वैज्ञानिक एंड्रियास फुलडा ने कहा कि ब्रिटिश राजनेता अपने यूरोपीय पड़ोसियों की तुलना में "चीन के बारे में अधिक स्पष्ट हैं"।

उन्होंने कहा, "ब्रिटेन ने ऑस्ट्रेलिया के चुनावी हलचल को देखते हुए चीन को राजनीतिक विमर्श के केंद्र में रखा और यूके की राजनीति में चीन पर होने वाली बहस यूरोप के अन्य देशों से काफी आगे है।"

ब्रिटेन की विदेश सचिव और कंजरवेटिव पार्टी की ओर से पीएम के चुनावी दौड़ में सबसे आगे चल रही ट्रस ने कहा कि वो वैश्विक स्तर पर लोकतंत्र पर ज्यादा बल देने की बात करती हैं ताकि चीन और रूस के फैलते प्रभुत्व को और अधिक ढंग से सामना किया जा सके। इसके साथ ही वह यह भी कहती हैं कि चीन की टेक कंपनियों जैसे कि टिक-टॉक के मालिक और अन्य शॉर्ट-वीडियो प्लेटफॉर्म पर ब्रिटेन में नकेल कसी जाएगी।

ब्रिटेन के शीर्ष राजनयिक के रूप में अपनी भूमिका निभा रही ट्रस ने नैन्सी पेलोसी की ताइवान यात्रा के बाद चीन के सैन्य कदमों की कड़ी आलोचना की और आरोप लगाया कि बीजिंग की "आक्रामक नीतियों के कारण शांति और स्थिरता को व्यापक खतरा पैदा हुआ है।"

ट्रस के साथ चुनावी मुकाबला कर रहे ब्रिटेन के पूर्व वित्त मंत्री और भारतीय मूल के राजनेता सुनक ने तो अपने चुनावी अभियान में बार-बार कह रहे हैं को ब्रिटेन में चल रहे चीनी-वित्त पोषित कन्फ्यूशियस संस्थानों को बंद करेंगे, जो यूके के विश्वविद्यालयों में चीनी संस्कृति और भाषा को बढ़ावा देने के नाम पर चीनी जासूसी का काम कर रहे हैं।

मालूम हो कि लंदन और बीजिंग के बीच रिश्तो में उस वक्त खटास आ गई थी, जब साल 2015 में राष्ट्रपति शी जिनपिंग को लंदन के राजकीय यात्रा की अनुमति दी गई थी। साल 2019 में जब बोरिस जॉनसन ने सत्ता संभाली, तो उन्होंने हमेशा इस बात पर जोर दिया कि वह "घुटने के बल चलने वाले सिनोफोब" नहीं थे लेकिन अमेरिका के दबाव में उनकी सरकार ने चीनी फर्मों को यूके के 5जी नेटवर्क से बाहर कर दिया था।

ब्रिटेन की खुफिया एजेंसी एमआई6 के प्रमुख रिचर्ड मूर ने पिछले महीने कहा था कि चीन अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता के तौर पर आतंकवाद से आगे निकल गया है और ही कारण है कि ब्रिटिश जासूस बीजिंग की बढ़ते आक्रामक खतरों को समझने का प्रयास कर रहे हैं।

वहीं लंदन यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज में चाइना इंस्टीट्यूट के निदेशक स्टीव त्सांग ने कहा कि ब्रिटेन के अगले प्रधानमंत्री बनने के इच्छुक किसी भी उम्मीदवार ने चीन के लिए सकारात्मक और सुसंगत नीति नहीं बनाई है।

त्सांग ने कहा, "मौजूदा राजनीतिक अभियानों में सुनक के भाषणों को देखें तो उससे स्पष्ट संकेत मिल रहा है उनकी नीति चीन के प्रति उदार रहने वाली नहीं है और न ही ट्रस ने विदेश सचिव होने के बावजूद चीन की कोई उचित रणनीति बनाई है।"

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