नयी दिल्ली, पांच जनवरी उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को ‘उत्साह में याचिकायें’ दायर करने पर निराशा व्यक्त करते हुये कहा कि यद्यपि अदालतें ‘जनता के अक्षुण्ण विश्वास की रक्षक’ हैं लेकिन उनसे ‘शासन’ करने और राज्य के विकास के कार्यो में बाधक बनने की अपेक्षा नहीं की जा सकती।
न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ ने 2:1 के बहुमत से केन्द्र की महत्वाकांक्षी सेन्ट्रल विस्टा परियोजना को हरी झंडी देते हुये ये टिप्पणियां कीं।
पीठ ने कहा कि हाल के समय में विशुद्ध रूप से नीतियों से संबंधित मामलों की विवेचना और व्यवस्था के खिलाफ आम शिकायतों का निबटारा करने के लिये जनहित याचिकायें दायर करने की प्रवृत्ति बढ़ी है।
न्यायालय ने कहा, ‘‘निस्संदेह, अदालतें जनता के अक्षुण्ण विश्वास की रक्षक हैं और यह भी हकीकत है कि जनहित की कुछ कार्रवाई के सराहनीय नतीजे भी सामने आये हैं लेकिन साथ ही यह समझना भी जरूरी है कि अदालतें संविधान में परिभाषित सीमाओं के भीतर ही काम करती हैं। हमें शासन करने के लिये नहीं कहा जा सकता।’’
न्यायमूर्ति खानविलकर ने अपने फैसले में कहा कि अदालत की भूमिका सरकार के नीतिगत निर्णयों और कार्रवाई की संवैधानिकता की पड़ताल करने तक सीमित होती है।
न्यायालय ने कहा, ‘‘विकास का अधिकार एक बुनियादी मानव अधिकार है और राज्य के किसी भी अंग को विकास की प्रक्रिया में उस समय तक बाधक नहीं बनना चाहिए जब तक सरकार कानून के अनुसार काम कर रही हो।’’
बहुमत के फैसले में न्यायालय ने आश्चर्य व्यक्त किया कि क्या किसी कानूनी प्रावधान के बगैर वह सरकार को किसी परियोजना पर धन खर्च करने की बजाय, उसका इस्तेमाल दूसरी जगह करने का निर्देश दे सकता है।
पीठ ने अपने फैसले में कहा, ‘‘हम समान रूप से विस्मित हैं कि क्या हमें प्रारंभिक चरण में ही अपूरणीय क्षति की जानकारी या तात्कालिक आवश्यकता के बगैर ही इसे पूरी तरह रोकने के लिये कूद पड़ना चाहिए या हम बगैर किसी कानूनी आधार के नैतिकता या शुचिता के मामले में सरकार को निर्देश दे सकते हैं। प्रतिपादित कानूनी व्यवस्था के मद्देनजर हमें इन क्षेत्रों में दखल देने से बचना चाहिए।’’
शीर्ष अदालत ने केन्द्र सरकार की महत्वाकांक्षी सेन्ट्रल विस्टा परियोजना में पर्यावरण मंजूरी और दूसरी औपचारिकताओं की कमियों का हवाला देते हुये दायर याचिकाओं पर यह फैसला सुनाया।
न्यायालय ने पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन और मौजूदा लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला के पत्रों तथा अन्य दस्तावेजों का जिक्र करते हुये याचिकाकर्ताओं की इन दलीलों को अस्वीकार कर दिया कि संबंधित दस्तावेज सार्वजनिक नहीं किये गये थे।
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