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पुण्यतिथि: क्यों कहते थे मंटो खुद को जेबकतरा, पढ़िए उन्हीं की ज़बानी

By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Updated: January 18, 2018 14:03 IST

लेखक सआदत हसन मंटो का जन्म 11 मई 1912 को हुआ था। 18 जनवरी 1955 को उनका निधन हुआ था।

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सआदत हसन मंटो (1912-1955)

मेरी जिंदगी में तीन बड़ी घटनाएँ घटी हैं। पहली मेरे जन्म की। दूसरी मेरी शादी की और तीसरी मेरे कहानीकार बन जाने की। लेखक के तौर पर राजनीति में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है। लीडरों और दवाफरोशों को मैं एक ही नजर से देखता हूँ। लीडर और दवाफरोशी दोनों पेशे हैं। राजनीति से मुझे उतनी ही दिलचस्पी है, जितनी गांधीजी को सिनेमा से थी। गांधीजी सिनेमा नहीं देखते थे, और मैं अखबार नहीं पढ़ता। दरअसल हम दोनों गलती करते हैं। गांधीजी को फिल्में जरूर देखनी चाहिए थीं, और मुझे अखबार जरूर पढ़ने चाहिए।

मुझसे पूछा जाता है कि मैं कहानी कैसे लिखता हूँ। इसके जवाब में मैं कहूँगा कि अपने कमरे में सोफे पर बैठ जाता हूँ, कागज-कलम लेता हूँ और 'बिस्मिल्ला' कहकर कहानी शुरू कर देता हूँ। मेरी तीनों बेटियाँ शोर मचा रही होती हैं। मैं उन से बातें भी करता हूँ। उनके लड़ाई-झगड़े का फैसला भी करता हूँ। कोई मिलने वाला आ जाए तो उसकी खातिरदारी भी करता हूँ, पर कहानी भी लिखता रहता हूँ। सच पूछिए तो मैं वैसे ही कहानी लिखता हूँ, जैसे खाना खाता हूँ, नहाता हूँ, सिगरेट पिता हूँ और झक मारता हूँ।

अगर पूछा जाए कि मैं कहानी क्यों लिखता हूँ, तो कहूँगा कि शराब की तरह कहानी लिखने की भी लत पड़ गई है। मैं कहानी न लिखूँ, तो मुझे ऐसा लगता है कि मैंने कपड़े नहीं पहने हैं या गुसल नहीं किया है या शराब नहीं पी है। दरअसल मैं कहानी नहीं लिखता हूँ, बल्कि कहानी मुझे लिखती है। मैं बहुत कम-पढ़ा लिखा आदमी हूँ। वैसे तो मैंने दो दर्जन किताबें लिखी हैं और जिस पर आए दिन मुकदमे चलते रहते हैं। जब कलम मेरे हाथ में न हो, तो मैं सिर्फ सआदत हसन होता हूँ!

कहानी मेरे दिमाग में नहीं, मेरी जेब में होती है, जिसकी मुझे कोई खबर नहीं होती। मैं अपने दिमाग पर जोर देता हूँ कि कोई कहानी निकल आए। कहानी लिखने की बहुत कोशिश करता हूँ, पर कहानी दिमाग से बाहर नहीं निकलती। आखिर थक-हारकर बाँझ औरत की तरह लेट जाता हूँ। अनलिखी कहानी की कीमत पेशगी वसूल कर चुका हूँ, इसलिए बड़ी झुँझलाहट होती है। करवट बदलता हूँ। उठकर अपनी चिड़ियों को दाने डालता हूँ। बच्चियों को झूला झुलाता हूँ। घर का कूड़ा-करकट साफ करता हूँ, घर में इधर-उधर बिखरे नन्हें-मुन्ने जूते उठाकर एक जगह रखता हूँ, पर कमबख्त कहानी जो मेरी जेब में पड़ी होती है, मेरे दिमाग में नहीं आती और मैं तिलमिलाता रहता हूँ।

जब बहुत ही ज्यादा कोफ्त होती है, तो गुसलखाने में चला जाता हूँ, पर वहाँ से भी कुछ मिलता नहीं। सुना है कि हर बड़ा आदमी गुसलखाने में सोचता है। मुझे अपने तजुर्बे से पता लगा है कि मैं बड़ा आदमी नहीं हूँ, पर हैरानी है कि फिर भी मैं हिंदुस्तान और पाकिस्तान का बहुत बड़ा कहानीकार हूँ। इस बारे में मैं यही कह सकता हूँ कि या तो मेरे आलोचकों को खुशफहमी है या फिर मैं उनकी आँखों में धूल झोंक रहा हूँ।

ऐसे मौकों पर, जब कहानी नहीं ही लिखी जाती, तो कमी यह होता है कि मेरी बीवी मुझसे कहती है, 'आप सोचिए नहीं, कलम उठाइए और लिखना शुरू कर दीजिए!' मैं उसके कहने पर लिखना शुरू कर देता हूँ। उस समय दिमाग बिल्कुल खाली होता है, पर जेब भरी हुई होती है। तब अपने आप ही कोई कहानी उछलकर बाहर आ जाती है। उस नुक्ते से मैं खुद को कहानीकार नहीं, बल्कि जेबकतरा समझता हूँ जो अपनी जेब खुद काटता है और लोगों के हवाले कर देता है।

मैंने रेडियो के लिए जो नाटक लिखे, वे रोटी के उस मसले की पैदावार हैं, जो हर लेखक के सामने उस समय तक रहता है, जब तक वह पूरी तरह मानसिक तौर पर अपाहिज न हो जाए। मैं भूखा था, इसलिए मैंने यह नाटक लिखे। दाद इस बात की चाहता हूँ कि मेरे दिमाग ने मेरे पेट में घुसकर ऐसे हास्य-नाटक लिखे हैं, जो दूसरों को हँसाते हैं, पर मेरे होठों पर हल्की-सी मुस्कराहट भी पैदा नहीं कर सके।

रोटी और कला का रिश्ता कुछ अजीब-सा लगता है, पर क्या किया जाए! खुदाबंदताला को यही मंजूर है। यह गलत है कि खुदा हर चीज से खुद को निर्लिप्त रखता है और उसको किसी चीज की भूख नहीं है। दरअसल उसे भक्ति चाहिए और भक्ति बड़ी नर्म और नाजुक रोटी है, बल्कि चुपड़ी हुई रोटी है, जिस से ईश्वर अपना पेट भरता है। सआदत हसन मंटो लिखता है, क्योंकि वह ईश्वर जितना कहानीकार और कवि नहीं है। उसे रोटी की खातिर लिखना पड़ता है।

मैं जानता हूँ कि मेरी शख्सियत बहुत बड़ी है और उर्दू साहित्य में मेरा बहुत बड़ा नाम है। अगर यह खुशफहमी न हो तो जिंदगी और भी मुश्किल बन जाए। पर मेरे लिए यह एक तल्ख हकीकत है कि अपने मुल्क में, जिसे पाकिस्तान कहते हैं, मैं अपना सही स्थान ढूँढ़ नहीं पाया हूँ। यही वजह है कि मेरी रूह बेचैन रहती है। मैं कभी पागलखाने में और कभी अस्पताल में रहता हूँ।

मुझसे पूछा जाता है कि मैं शराब से अपना पीछा क्यों नहीं छुड़ा लेता? मैं अपनी जिंदगी का तीन-चौथाई हिस्सा बदपरहेजियों की भेंट चढ़ा चुका हूँ। अब तो यह हालत है कि परहेज शब्द ही मेरे लिए डिक्शनरी से गायब हो गया है।

मैं समझता हूँ कि जिंदगी अगर परहेज से गुजारी जाए, तो एक कैद है। अगर वह बदपरहेजियों में गुजारी जाए, तो भी कैद है। किसी-न-किसी तरह हमें इस जुर्राब के धागे का एक सिरा पकड़कर उसे उधेड़ते जाना है और बस!

(हिन्दी समय डॉट कॉम से साभार) 

 

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