RSS Dussehra 100 years: केशव बलिराम हेडगेवार ने 27 सितंबर, 1925 को नागपुर में छोटी टोली को इकट्ठा किया और आज कई राज्यों और केंद्र में सरकार
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: October 1, 2025 21:11 IST2025-10-01T21:10:40+5:302025-10-01T21:11:59+5:30
RSS Dussehra 100 years:हेडगेवार लोगों के चरित्र निर्माण के माध्यम से राष्ट्र निर्माण के लिए हिंदू समाज को संगठित करने के विचार पर काम करने लगे।

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नई दिल्लीः स्वतंत्रता आंदोलन से प्रभावित चिकित्सक केशव बलिराम हेडगेवार ने 27 सितंबर, 1925 को नागपुर में अपने घर पर युवाओं, मूलत: किशोरों की एक छोटी टोली को इकट्ठा किया और साधारण घोषणा की, ‘‘हम आज संघ की शुरुआत कर रहे हैं।’’ शुरुआत साधारण थी, लेकिन ‘डॉक्टर जी’ के युवा अनुयायियों के लिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। हेडगेवार को उनके मित्र प्यार से ‘डॉक्टर जी’ कहते थे। हेडगेवार लोगों के चरित्र निर्माण के माध्यम से राष्ट्र निर्माण के लिए हिंदू समाज को संगठित करने के विचार पर काम करने लगे।
उससे लगभग ढाई साल पहले, हेडगेवार ने वर्धा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक मंडल की शुरुआत की थी, जो उनके ऐसे प्रयोगों का हिस्सा था जिनके माध्यम से ‘समाज को बदला’ जा सके। विजयादशमी के दिन उन्होंने जिस संघ की नींव डाली थी, उसकी शुरुआत उनके घर पर मासिक बैठकों (युवाओं का जमावड़ा) से हुई।
आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत कहते हैं, ‘‘चार-पांच बार कार्यकर्ता अपनी मर्ज़ी से बैठक में शामिल हुए और बाद में उन्हें सूचित करना पड़ा। फिर ऐसी स्थिति पैदा हुई कि सूचना मिलने के बाद भी वे बैठक में शामिल नहीं हुए।’’ भागवत ने 2018 में दिल्ली में दिए गए अपने व्याख्यानों के संकलन ‘‘फ्यूचर भारत’’ में याद किया है, ‘‘फिर सुझाव दिया गया कि मासिक बैठकों के बजाय साप्ताहिक बैठकें आयोजित की जाएं ताकि बैठकों में शामिल होना एक आदत बन जाए।’’ भागवत ने कहा, ‘‘ फिर प्रतिदिन बैठक होने लगी। रोज़ाना बैठकें और चर्चाएं एक कमरे में होती थीं।’’
उन्होंने कहा कि हेडगेवार चाहते थे कि नियमित बैठकें हों। अगले कुछ महीनों में एक खुले मैदान में पूर्ण शाखा शुरू हुई, क्योंकि हेडगेवार के स्वयंसेवकों के समूह में शामिल युवा लड़के केवल एक साथ बैठकर विभिन्न विषयों पर चर्चा करने के बजाय शारीरिक गतिविधियों में रुचि रखते थे। खाकी निकर और सफेद कमीज पहनना और लाठी लेकर आना स्वयंसेवकों का 'गणवेश' बन गया।
शाखा में शारीरिक गतिविधियां नियमित हो गईं। सेवानिवृत्त सैन्यकर्मी और हेडगेवार के मित्र मार्तंड जोग ने परेड सत्रों के साथ-साथ स्वयंसेवकों का शारीरिक प्रशिक्षण भी शुरू किया। लेकिन संगठन को अभी तक कोई औपचारिक नाम नहीं मिला था। भागवत ने याद करते हुए कहा, ‘‘जब शाखा में आने वाले लोग नए लोगों को लाने लगे, तो नए लोग संघ का नाम पूछने लगे।
इसलिए जब कार्यकर्ताओं ने डॉक्टरजी से यह प्रश्न पूछा, तो उन्होंने कहा, ‘‘अभी तक यह तय नहीं हुआ है। आप लोग बैठकर निर्णय लें।’’ तदनुसार, हेडगेवार की उपस्थिति में लगभग 16 स्वयंसेवक एक साथ बैठे और 17 अप्रैल को बैठक की स्वीकृति से संगठन को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) नाम मिला, क्योंकि प्रतिभागियों द्वारा प्रस्तावित चार नामों में से बहुमत ने इसके पक्ष में मतदान किया। पुस्तक में भागवत के हवाले से कहा गया है, ‘‘डॉ. हेडगेवार हमेशा सामूहिक निर्णय लेने के आदी थे, जो संघ की भी प्रवृति बन गई।’’
संघ को अपना नाम इसके गठन के छह महीने बाद मिला, जबकि सरसंघचालक, सरकार्यवाह और सरसेनापति (मुख्य प्रशिक्षक) के पद चार साल बाद सृजित किए गए। पूर्व भाजपा सांसद राकेश सिन्हा ने अपनी पुस्तक 'आधुनिक भारत के निर्माता - डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार' में लिखा है, ‘‘सरसंघचालक पद का सृजन अपने आप में एक असाधारण घटना थी।
देश में बदलती राजनीतिक परिस्थितियों पर चर्चा और वाद-विवाद के बाद, नौ और 10 नवंबर 1929 को नागपुर में सभी प्रमुख स्वयंसेवकों की दो दिवसीय बैठक हुई।’’ बैठक में संगठन का आधार एकात्मक नेतृत्व संरचना (एकचालकानुवर्तित्व) पर आधारित रखने का निर्णय लिया गया।
सिन्हा ने लिखा, ‘‘बैठक के अंतिम दिन, स्वयंसेवकों की एक बड़ी सभा में, अप्पाजी जोशी ने संघ बैठक के निर्णयों की घोषणा करने से पहले एक प्रस्ताव पारित किया: ‘‘सरसंघचालकप्रणाम (अभिवादन) एक, दो, तीन।’’ सिन्हा ने लिखा, ‘‘इसके बाद सभी स्वयंसेवकों ने डॉ. हेडगेवार का सरसंघचालक के रूप में स्वागत किया।’’
सिन्हा ने लिखा, ‘‘वह अचंभित रह गए। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद, उन्होंने अप्पाजी जोशी के सामने अपनी अस्वीकृति व्यक्त की और कहा, मुझे ऐसे आदरणीय व्यक्तियों का अभिवादन स्वीकार करना अच्छा नहीं लगता जो त्याग के लिए समर्पित हैं।’’ सिन्हा आगे कहते हैं, ‘‘इस पर अप्पाजी ने उन्हें बताया कि यह संघ का सामूहिक निर्णय है और 'संगठन के हित में, आपको इस निर्णय को स्वीकार करना होगा, भले ही यह आपको नापसंद हो।’’ नागपुर में कुछ स्वयंसेवकों की बैठकों से सफर शुरू करने के बाद आरएसएस ने एक लंबी दूरी तय की है और बृहस्पतिवार को अपनी स्थापना के 100 वर्ष पूरे कर रहा है।
अब यह अखिल भारतीय स्तर पर अपनी उपस्थिति के साथ दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन बन गया है, जो देश के राजनीतिक और सामाजिक विमर्श को आकार दे रहा है। पिछले कुछ वर्षों में, स्वयंसेवकों ने बड़ी संख्या में आरएसएस-प्रेरित संगठन बनाए हैं। इनमें से 32 अहम हैं, जिनमें भारतीय मजदूर संघ, वनवासी कल्याण आश्रम, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) आदि शामिल हैं। स्वतंत्रता के बाद, आरएसएस को तत्कालीन सरकारों द्वारा तीन बार प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा।
पहला प्रतिबंध 30 जनवरी, 1948 को नाथूराम गोडसे द्वारा महात्मा गांधी की हत्या के बाद लगाया गया था। आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक एमएस गोलवलकर को एक फरवरी, 1948 को गिरफ्तार किया गया था, क्योंकि तत्कालीन सरकार ने हत्या के लिए संघ को दोषी ठहराया था। इस वर्ष हजारों स्वयंसेवकों को भी गिरफ्तार किया गया था।
चार जुलाई 1975 को आरएसएस पर दूसरी बार प्रतिबंध लगाया गया और 25 जून को इंदिरा गांधी सरकार द्वारा आपातकाल लागू करने के बाद तत्कालीन आरएसएस प्रमुख बालासाहेब देवरस को गिरफ्तार कर लिया गया। कई आरएसएस नेताओं का कहना है कि 21 महीने तक चले आपातकाल में हजारों स्वयंसेवकों को गिरफ़्तार किया गया और कुछ को तो यातनाएं देकर मार डाला गया।
लेकिन बड़ी संख्या में संघ नेताओं और कार्यकर्ताओं ने भूमिगत रहते हुए आपातकाल के ख़िलाफ़ अपना आंदोलन जारी रखा। अयोध्या में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद आरएसएस पर तीसरी बार प्रतिबंध लगाया गया। आरएसएस देश भर में लगभग एक लाख से ज़्यादा दैनिक, साप्ताहिक और मासिक शाखाएं चला रहा है।
शताब्दी वर्ष की योजनाओं के तहत, यह पूरे भारत में घर-घर जाकर जनसंपर्क अभियान चलाने और एक लाख से ज़्यादा हिंदू सम्मेलन आयोजित करने की योजना बना रहा है, जिसकी शुरुआत बृहस्पतिवार को नागपुर मुख्यालय में मोहन भागवत के वार्षिक विजयादशमी संबोधन से होगी। पूर्व आरएसएस प्रचारक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के कई राज्यों और केंद्र में सत्तासीन होने के साथ, संघ अपने मिशन को अधिक उत्साह और प्रेरणा के साथ जारी रखने के लिए प्रयासरत है।
गोलवलकर ने सबसे अधिक चुनौती के समय संघ की कमान संभाली थी
माधव सदाशिवराव गोलवलकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक पद के लिए एकमात्र विकल्प नहीं थे लेकिन उन्हें इस पद पर चुना गया और उन्होंने कठिन दौर में संगठन का नेतृत्व किया और उसे आकार दिया। वरिष्ठ पत्रकार सुधीर पाठक ने ऐसा दावा किया है। आरएसएस के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने जून 1940 में अपनी मृत्यु से पहले जंतुविज्ञान के प्रोफेसर गोलवलकर को अपना उत्तराधिकारी चुना था। आरएसएस से संबद्ध समाचार पत्र 'तरुण भारत' के पूर्व संपादक पाठक ने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा कि गोलवलकर का चुनाव आश्चर्यजनक था।
उस समय 34 वर्ष के रहे गोलवलकर 1925 में संघ की स्थापना के बाद से संगठन से तब तक जुड़े नहीं थे। पाठक ने कहा कि वह रामकृष्ण मिशन जैसे संगठन में शामिल होने के इच्छुक थे और उन्होंने संन्यासी बनने के बारे में भी सोचा था। पाठक के अनुसार अगले आरएसएस प्रमुख के लिए अप्पाजी जोशी जैसे अन्य संघ पदाधिकारियों के नामों पर भी विचार किया गया था।
गोलवलकर उस समय संगठन के सरकार्यवाह थे, लेकिन कुछ नेता उनसे वरिष्ठ भी थे। लेकिन अंततः हेडगेवार ने निर्णय लिया कि गोलवलकर को संघ की कमान संभालनी चाहिए। गोलवलकर, जिन्हें 'गुरुजी' के नाम से जाना जाता था, 1973 में अपनी मृत्यु तक इस पद पर रहे। पाठक ने बताया कि आरएसएस प्रमुख के रूप में, गोलवलकर का ध्यान शाखाओं के नेटवर्क का विस्तार करने और "व्यक्तित्व निर्माण" या अपने स्वयंसेवकों के चरित्र निर्माण पर था, जिस पर हेडगेवार ने ज़ोर दिया था।
पाठक के अनुसार 1942 में जब महात्मा गांधी ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया, तो गोलवलकर को एक बड़े नीतिगत फैसले का सामना करना पड़ा और यह सवाल उठा कि क्या आरएसएस को इस आंदोलन में शामिल होना चाहिए। गोलवलकर ने फैसला किया कि संघ इस आंदोलन का हिस्सा नहीं होगा, हालांकि इसके सदस्य व्यक्तिगत रूप से इसमें भाग ले सकते हैं।
पाठक ने बताया कि कुछ आरएसएस स्वयंसेवकों ने भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया था। उन्होंने बालासाहेब देशपांडे जैसे लोगों का उदाहरण दिया, जिन्होंने नागपुर जिले के रामटेक तहसील कार्यालय से ब्रिटिश झंडे यूनियन जैक को हटा दिया था। उन्होंने बताया कि संघ स्वयंसेवकों ने चिमूर-आष्टी आंदोलन में भी भाग लिया था, जिसमें तीन आरएसएस स्वयंसेवकों सहित सात लोगों को मौत की सजा सुनाई गई थी, लेकिन बाद में प्रिवी काउंसिल से उन्हें राहत मिल गई थी। पाठक ने कहा कि गोलवलकर 1947 में विभाजन के पक्ष में नहीं थे, लेकिन संघ इसका प्रभावी ढंग से विरोध करने की स्थिति में नहीं था।
जल्द ही, आरएसएस को अपनी सबसे बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा जब जनवरी 1948 में महात्मा गांधी की हत्या कर दी गई और सरकार ने संघ पर प्रतिबंध लगा दिया। पाठक के अनुसार, गोलवलकर ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल और महात्मा गांधी के परिवार के सदस्यों को तार भेजकर गांधी की मृत्यु पर शोक व्यक्त किया।
हालांकि, उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और मध्य प्रदेश के बैतूल और सिवनी की जेलों में रखा गया। 5 फरवरी, 1948 को आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। जेल से, गोलवलकर ने सरकार से पत्र-व्यवहार किया और प्रतिबंध हटाने का अनुरोध किया, जिसे वह अवैध मानते थे। वरिष्ठ पत्रकार के अनुसार, नवंबर 1948 में आरएसएस स्वयंसेवकों ने 'शाखा' के लिए एकत्रित होकर सत्याग्रह शुरू किया।
तीन महीने बाद, सरकार ने संगठन से एक लिखित संविधान बनाने को कहा। गोलवलकर ने जेल से ही एक संविधान का मसौदा तैयार किया और उसे सरकार को सौंप दिया। इसके बाद, आरएसएस पर से प्रतिबंध हटा लिया गया और उन्हें रिहा कर दिया गया।
पाठक ने बताया कि गोलवलकर की सरदार पटेल से मुलाकात के बाद, आरएसएस के प्रति सरकार का रवैया थोड़ा बदल गया। पाठक ने बताया कि 1948 से 1950 का समय आरएसएस के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण था क्योंकि जनमत इसके खिलाफ था, लेकिन गोलवलकर इस संकट को टालने में कामयाब रहे और उन्होंने संगठन को एक नई दिशा दी