बीजेपी में शामिल होते ही ज्योतिरादित्य सिंधिया को मिला राज्यसभा का टिकट
By स्वाति सिंह | Published: March 11, 2020 05:54 PM2020-03-11T17:54:34+5:302020-03-11T18:04:26+5:30
भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा ने पार्टी मुख्यालय में सिंधिया को पार्टी की सदस्यता दिलाई। सिंधिया ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व की सराहना करते हुए कहा कि वह आहत थे क्योंकि वह अपने पूर्व संगठन (कांग्रेस) में लोगों की सेवा नहीं कर पा रहे थे।
कांग्रेस से इस्तीफ़ा देने के बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया बुधवार को भाजपा में शामिल हो गये। इसी बीच बुधवार को ही बीजेपी ने सिंधिया को राज्यसभा के लिए भेजा है। मध्य प्रदेश के पूर्व सीएम शिवराज सिंह चौहान ने सिंधिया को बीजेपी की तरफ से राज्यसभा का कैंडिडेट चुने जाने पर बधाई दी है।
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, बीजेपी ने ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ ही हर्ष सिंह चौहान को मध्य प्रदेश से राज्यसभा के लिए उम्मीदवार घोषित कर दिया है। गौरतलब है कि भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा ने पार्टी मुख्यालय में सिंधिया को पार्टी की सदस्यता दिलाई। सिंधिया ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व की सराहना करते हुए कहा कि वह आहत थे क्योंकि वह अपने पूर्व संगठन (कांग्रेस) में लोगों की सेवा नहीं कर पा रहे थे। ज्योतिरादित्य को राजनीति विरासत में मिली है। उनकी दादी विजयराजे सिंधिया की गिनती जहां भाजपा के शीर्ष नेताओं में होती थी, वहीं पिता माधवराव कांग्रेस के कोर मेंबर्स में से एक थे।
जनवरी 1971 में ज्योतिरादित्य का जन्म
जनवरी 1971 को सिंधिया राजघराने में पैदा हुए ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस के प्रमुख नेताओं में से एक रहे हैं। अपनी स्कूली शिक्षा मुंबई से प्राप्त करने के बाद ज्योतिरादित्य अमेरिका चले गए। वहां की स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी से मैनेजमेंट में डिग्री लेने के बाद वे भारत लौटे। 2002 में पहली बार उन्होंने चुनाव लड़ा। लोकसभा चुनाव में उन्हें पहली बार गुना से सांसद चुना गया। 2004 में 14वीं लोकसभा में उन्हें दोबारा चुना गया। 6 अप्रैल 2008 को उन्हें संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी के राज्यमंत्री का पद प्राप्त हुआ। 2009 लोकसभा में भी वह विजयी रहे और उन्हें वाणिज्य एवं उद्योग राज्यमंत्री का पद प्राप्त हुआ। 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने सत्ता गंवा दी, लेकिन ज्योतिरादित्य अपनी सीट बचाने में कामयाब रहे थे। लेकिन 2019 की मोदी लहर में वे अपनी परंपरागत सीट नहीं बचा पाए और किसी समय अपने सहयोगी रहे केपी यादव से ही चुनाव हार गए।