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नई किताब- 'चौरासी': लम्हों ने खता की, सदियों ने सजा पाई सखी री!

By आदित्य द्विवेदी | Updated: December 15, 2018 15:17 IST

Chaurasi Book Review: 'नई वाली हिंदी' के अग्रणी लेखक सत्य व्यास का नया उपन्यास 1984 के सिख विरोधी दंगों की पृष्ठभूमि में लिखा गया है। पढ़िए 'चौरासी' की समीक्षा।

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आमतौर पर प्रेम कहानियां क्या होती हैं? लड़का और लड़की, दोनों के बीच प्रेम हुआ, कहानी के अंत में या तो वो मिलेंगे या बिछड़ेंगे। सिर्फ इतना ही? जी नहीं, प्रेम कहानियों में दो होठों के मिलन के बीच देश-दुनिया में बहुत कुछ घट रहा होता है जिसमें उनका प्यार सीधे तौर पर प्रभावित होता है।

सत्य भले लिख रहे हों कि प्रेम के मसले दरअसल, प्रेम तक ही सीमित होते हैं। दुनियावी बवालों, सियासती अहवालों और मज़हबी सवालों से प्रेमी अछूते ही रहते हैं। लेकिन यह सच नहीं है। इस बात की पुख्ता वकालत करता है उनका नया उपन्यास चौरासी। खासतौर पर जब प्रेमियों की जाति, धर्म या संस्कृति अलग-अलग हों तो उनके मिलन में राजनीति का दखल बढ़ जाती है।

चौरासी, ऋषि और मनु के प्यार की कहानी है, या शहर बोकारो की जिसने एक रात में ही 69 लोगों की खूंरेजी देखी या साल 1984 की जिसके दामन में हजारों सिखों के खून का दाग है। सत्य व्यास का यह तीसरा उपन्यास है। पिछले दोनों उपन्यासों (बनारस टॉकीज और दिल्ली दरबार) की कहानी में एक निश्चछलता थी लेकिन चौरासी में निश्छल प्रेम के बीच घोर राजनीतिक दखल है। जो दो लोगों की दुनिया ही बदल देता है।

ऋषि और मनु के बीच मासूम प्रेम का एक प्रसंग-

‘कमरे ने देखा कि निकलते वक़्त मनु की उंगलियां ऋषि के हाथों की उंगलियों के अंतिम सिरे को छूते हुए बाहर निकलीं। मनु पिछले दो दिनों से बुख़ार में गिरी पड़ी है। ऋषि लौट आया। उसके पास मनु की तरह चोरी-छुपे ही सही, पास बैठ पाने की सलाहियत नहीं थी। वह नहीं जान पाया कि उसके हाथों में भी कोई मसीहाई है या नहीं। हां, मगर ऋषि ने इतना ज़रूर जाना कि प्रेम में शरीर को जोग ही नहीं, रोग भी लग जाते हैं। प्रेम बेख़ुदी ही नहीं, बीमारियां भी साझा कर जाता है। अदला-बदली पत्रों की ही नहीं, पीड़ाओं की भी होती है।’

कायदे से चौरासी को दो सिटिंग में पढ़ा जाना चाहिए। पहला जब ऋषि और मनु का मासूम प्रेम पनप रहा होता है। जिसमें एक दूसरे के लिए आकर्षण, फिक्र, संकोच और लोगों की चिंता सब साथ-साथ जन्म ले रही है। इन सबको को पीछे छोड़कर ऋषि और मनु के बीच की दूरी शून्य होती है वहीं पहला भाग खत्म हो जाती है।

दूसरा भाग शुरू होता है 31 अक्टूबर 1984 की तारीख से। ये भाग आपको बेचैन करता है। आप ऋषि और मनु को थोड़ी देर के लिए छोड़ देते हैं। बोकारो शहर में उस रात का मंजर आपको बेचैन कर देता है। आप भी डरे हुए और आशंकित होते हैं। ना सिर्फ मनु के परिवार के लिए बल्कि शहर भर के सिखों के लिए। यही डर और आशंका पैदा कर देना सत्य व्यास के लेखन की सफलता है। वो मनहूस रात गुजरती है लेकिन बहुत कुछ बदलकर।

दंगों के पीछे सिर्फ एक मकसद नहीं होता। उसके पीछे घृणा होती है, बदले की भावना होती है और इसके साथ होता है लालच। किताब का एक अंश-

‘घृणा हुजूम का सबसे मारक हथियार है। महज दो मुहल्ले बदल लेने से आप बशीर, रौनक, जितेन्द्र या ऋषि न होकर भीड़ होते हैं। भीड़ जिसके सिर पर खून सवार है। भीड़ जो भेड़ियों का समूह है। भीड़ जो उन्मादी है। भीड़ जिसे बदला लेना है। भीड़ जिसे तुम्हें तुम्हारी औकात दिखानी है। भीड़ जिसे अपट्रान की टीवी चाहिए। भीड़ जिसे कुकर चाहिए, भीड़ जिसे ख़ून चाहिए। सरदारों का खून और खून तो गुरनाम के साथ ही मुंह से लग गया था।’

सत्य व्यास का यह उपन्यास लेखन की दृष्टि बेहद सधा हुआ है। इसमें उनके पहले उपन्यास 'बनारस टॉकीज' जैसी अल्हड़ता नहीं है। किरदार भी बहुत सीमित हैं। कहानी के दूसरे पक्ष (1984) को ज्यादा बेहतर तरीके से उभार पाने में सफल रहे हैं इस वजह से ऋषि और मनु के बीच की प्रेम कहानी थोड़ी सपाट लगने लगती है।

इस उपन्यास की दो और बातें बहुत खूबसूरत लगी। पहली इसके चैप्टर के नाम। हर अध्याय शुरू होने से पहले एक कथ्य में ही सार सुना देता है। दूसरा इस उपन्यास का अंत। आप उपन्यास पढ़ते हुए अंत की कल्पना के घोड़े दौड़ाने लगते हैं लेकिन अंत तक असमंजस में रहते हैं। कहानी खत्म होने के बाद भी एक सवाल छोड़ जाती है।

एक बार पढ़ी जानी चाहिए...!!!

उपन्यास: चौरासी

लेखक: सत्य व्यास

प्रकाशक: हिन्द युग्म प्रकाशन

कीमत: 125 रुपए

टॅग्स :पुस्तक समीक्षाकला एवं संस्कृति
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