कर्मभूमि में वोट बैंक बन कर रह गए उत्तर भारतीय, ना राजनीतिक हिस्सेदारी मिली ना घर जाने को रेल
By महेश खरे | Published: April 4, 2019 08:02 AM2019-04-04T08:02:15+5:302019-04-04T08:02:15+5:30
अपनी जन्मभूमि छोड़कर गुजरात को कर्मभूमि बनाने के इरादे से राज्य में आकर बसी उत्तर भारतीयों की 25 लाख से अधिक की आबादी यहां मात्र वोटबैंक बनकर रह गई. लगभग 30 विधानसभा सीटों पर निर्णायक होने के बाद भी इनकी राजनीतिक हिस्सेदारी महानगरपालिका, नगरपालिका और पंचायतों तक ही सीमित है.
अहमदाबाद, 4 अप्रैल: उत्तर भारतीयों ने अपनी कर्मभूमि में सियासी हिस्सेदारी के लिए बहुत हाथ-पैर मारे पर प्रदेश में 22 साल से सत्तारूढ़ भाजपा ने इन्हें स्थानीय संस्थाओं तक ही सीमति रखा. कांग्रेस ने अवश्य दक्षिण गुजरात की एक-दो सीटों पर लोकसभा और विधानसभा टिकट से नवाजा पर जीत हासिल नहीं हो सकी. सूरत मनपा की बात करें तो उत्तर भारतीयों का अच्छा खासा प्रतिनिधित्व रहता आया है. डिप्टी मेयर और मनपा में सत्तारूढ़ दल के नेता पद पर उत्तर भारतीय चेहरों ने अपनी चमक जरूर दिखाई है.
हिंदी भाषाभाषी सेल बीते वर्षों में यहां अस्तित्व में आया. उत्तर भारतीयों ने इसमें बढ़-चढ़कर सक्रियता दिखाई लेकिन अंतत: इस संगठन के माध्यम से भी राजनीतिक हित साधने के प्रयास सफल नहीं हुए. उत्तर भारतीयों के नेता अजय चौधरी ने भाजपा नेतृत्व से बगावत कर चौर्यासी विधानसभा सीट से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में भाग्य आजमाया लेकिन उन्हें भी जनता का विजयी वोट नहीं मिला.
2009 में नवसारी लोकसभा सीट पर कांग्रेस ने उत्तर भारतीय चेहरे धनसुख पटेल को उतारा. उन्होंने सी. आर. पाटिल को अच्छी टक्कर तो दी लेकिन जीत लायक मत हासिल नहीं कर सके. विधानसभा चुनाव में भी उन्हें कामयाबी नहीं मिल पाई.
रेल नहीं तो चैन नहीं
उत्तर भारतीयों की रेल सुविधा की एकमात्र मांग भी पूरी नहीं हो पाई. रेल नहीं तो चैन नहीं जैसे आंदोलन हुए, धरना-प्रदर्शन यहां तक कि ट्रेनें भी रोकी गईं पर उत्तर भारतीयों को आश्वासन के अधिक कुछ नहीं मिल सका. आंदोलनकारियों को भाजपा सरकार के कोप का भाजन बनना पड़ा सो अलग. शादियों और त्योहारों में उत्तर प्रदेश और बिहार जाने वाली ट्रेनों में पैर रखने की भी जगह नहीं मिलती. दो-दो महीने पहले से वेटिंग 900 से अधिक हो जाती है.
इनमें एकता का अभाव आखिर क्या कारण है कि निर्णायक संख्याबल के बाद भी इनको ना तो राजनीतिक हिस्सेदारी मिल पा रही और ना ही रेल सुविधा. उत्तर भारतीय नेता ही इस स्थिति का एकमात्र कारण बताते हैं, एकता का अभाव. बाहर साथ अंदर लैग पुलिंग से परप्रांतीय अपने संख्याबल का लाभ नहीं उठा पा रहे हैं. चुनाव के समय राजनाथ सिंह, योगी आदित्यनाथ और मनोज तिवारी जैसे नेताओं के सानिध्य का लाभ इनके आक्रोश को ठंडा करता रहता है और ये आनंदपूर्वक भाजपा के साथ हो लेते हैं.