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एल्गार परिषद मामला : उच्च न्यायालय ने भारद्वाज को जमानत दी, आठ अन्य की अर्जी खारिज की

By भाषा | Updated: December 1, 2021 13:42 IST

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मुंबई, एक दिसंबर बंबई उच्च न्यायालय ने एल्गार परिषद माओवादी संबंध मामले में वकील सुधा भारद्वाज को बुधवार को तकनीकी खामी के आधार पर जमानत प्रदान कर दी। हालांकि, अदालत ने वरवरा राव, सुधार धावले और वर्नोन गोंसाल्विज सहित आठ अन्य आरोपियों की इसी आधार पर जमानत की अर्जी खारिज कर दी।

न्यायमूर्ति एस.एस. शिंदे और न्यायमूर्ति एन.जे. जामदार की पीठ ने इसके साथ ही निर्देश दिया कि भायकला महिला कारावास में इस समय कैद भारद्वाज को शहर की राष्ट्रीय अन्वेषण अभिकरण (एनआईए) की विशेष अदालत में आठ दिसंबर को पेश किया जाए, जो उनकी जमानत की शर्तें तय करेगी और मुंबई के भायकला महिला कारागार से रिहाई को अंतिम रूप देगी। भारद्वाज वर्ष 2018 में गिरफ्तारी के बाद से विचाराधीन कैदी के तौर पर कारागार में बंद हैं।

भारद्वाज इस मामले में गिरफ्तार 16 कार्यकर्ताओं और शिक्षाविदों में पहली आरोपी हैं जिन्हें तकनीकी खामी की वजह से जमानत दी गई है। कवि और कार्यकर्ता वरवरा राव इस समय चिकित्सा के आधार पर जमानत पर है। पादरी स्टैन स्वामी की इस साल पांच जुलाई को अस्पताल में उस समय मौत हो गई थी, जब वह चिकित्सा के आधार पर जमानत का इंतजार कर रहे थे।

अन्य आरोपी विचाराधीन कैदी के तौर पर जेल में बंद हैं।

उच्च न्यायालय ने बुधवार को अन्य आठ आरोपियों- सुधीर धावले, वरवरा राव, रोना विल्सन, सुरेंद्र गाडलिंग, शोमा सेन, महेश राउत, वर्नोन गोंसाल्विज और अरुण फरेरिया की तकनीकी खामी के आधार पर जमानत देने की अर्जी खारिज कर दी।

अदालत के विस्तृत आदेश की प्रति की प्रतीक्षा है।

उच्च न्यायालय की पीठ ने एनआईए की ओर से पेश अतिरिक्त सॉलिसीटर जनरल अनिल सिंह का जमानत के आदेश पर रोक लगाने का अनुरोध अस्वीकार कर दिया।

पीठ दो याचिकाओं- सुधा भारद्वाज द्वारा एक दाखिल, दूसरा धावले एवं अन्य आरोपियों द्वारा दाखिल- पर जैसे ही फैसला सुनाने वाली थी अतिरिक्त सॉलिसीटर जनरल सिंह ने हस्तक्षेप किया और कहा कि वह हाल में उच्चतम न्यायालय के एक हालिया फैसले को इस अदालत के संज्ञान में लाना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि शीर्ष अदालत ने आदेश में कहा है कि मामले का संज्ञान में लेने में हुई तकनीकी खामी स्वत: आरोपी को जमानत की अधिकारी नहीं बनाती।

इस पर, पीठ ने कहा कि एक बार मामले पर फैसला सुरक्षित कर लेने के बाद पक्षकार द्वारा नए फैसले का हवाला देने का सवाल ही नहीं है।

अदालत ने कहा, ‘‘हम उच्चतम न्यायालय के उस फैसले से अवगत हैं जिसके बारे में आप (एनआईए) बात कर रहे हैं। इसलिए हमने ने दूसरे याचिकाकर्ता (धावले और अन्य) की अर्जी खारिज की है।’’

पीठ ने कहा, ‘‘ और, तकनीकी खामी के आधार पर जमानत दिये जाने के आदेश पर रोक नहीं लगाई जा सकती है। विशेष अदालत को उनकी (भारद्वाज) जमानत की शर्तो पर फैसला लेने दीजिए।’’

इससे पहले, भारद्वाज के वकील और वरिष्ठ अधिवक्ता युग चौधरी ने बहस के दौरान उच्च न्यायालय के समक्ष तर्क रखा कि जिस न्यायाधीश ने सितंबर 2018 में गिरफ्तारी के बाद भारद्वाज और अन्य सह आरोपियों को न्यायिक हिरासत में भेजा, ‘‘वह आभास कर थे’’ कि उन्हें विशेष न्यायाधीश नियुक्त किया गया था।

युग चौधरी ने कहा कि के.डी. वदने पुणे में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश हैं जिन्होंने पुणे पुलिस को मामले में आरोप पत्र दाखिल करने के लिए अतिरिक्त समय की मंजूरी दी। न्यायाधीश वदने ने आरोप पत्र पर संज्ञान लिया और अक्टूबर 2018 को भारद्वाज और तीन अन्य सह आरोपियों की जमानत अर्जी खारिज की।

चौधरी ने तर्क दिया कि पुणे की अदालत ने आदेश पारित कर 90 दिन की भारद्वाज की हिरासत अवधि पूरी होने के बाद आरोप पत्र दाखिल करने की अनुपति दी, इसे वैध और कानूनी नहीं माना जा सकता है और इसलिए भारद्वाज जमानत की अधिकारी हैं।

एल्गार परिषद माओवादी संबंध की जांच कर रही एनआई ने भी दोनों याचिकाओं का विरोध किया और कहा कि एनआईए अधिनियम राज्य पुलिस को मामला केंद्रीय एजेंसी द्वारा अपने हाथ में लेने तक जांच से नहीं रोकता।

एनआईए ने कहा कि राज्य सरकार द्वारा तय विशेष अदालत का उस समय न्यायाधिकार क्षेत्र था। एजेंसी ने उच्च न्यायालय से भारद्वाज की जमानत अर्जी खारिज करने का अनुरोध करते हुए अपने हलफानामे में कहा कि भारद्वाज एक के बाद दूसरे आधार पर जमानत की याचिका दाखिल कर रही थीं।

अधिवक्ता आर सत्यनारायणन के जरिये दायर एक अन्य याचिका में धावले और अन्य ने महाराष्ट्र सरकार द्वारा जारी तीन अधिसूचनाओं की ओर ध्यान आकर्षित कराया जिसमें पुणे में विशेष अदालत बनाने की बात की गई थी। उन्होंने कहा कि इसके मुताबिक न्यायाधीश वदने को विशेष न्यायाधीश नियुक्त नहीं किया गया था।

गौरतलब है कि भारद्वाज को पुणे पुलिस ने 28 अगस्त 2018 को गिरफ्तार किया था और 27 अक्टूबर तक वह अपने घर में ही नजरबंद थी।

यह मामला 31 दिसंबर 2017 को पुणे के शनिवाड़ा में एल्गार परिषद की संगोष्ठी में भड़काऊ भाषण देने से जुडा है। पुलिस का दावा है कि इसके अगले दिन पुणे के बाहरी इलाके कोरेगांव-भीमा में भाषण की वजह से हिंसा भड़की। पुलिस का यह भी दावा है कि इस संगोष्ठी को माओवादियों का समर्थन हासिल था। बाद में इस मामले की जांच एनआईए को सौंप दी गई।

Disclaimer: लोकमत हिन्दी ने इस ख़बर को संपादित नहीं किया है। यह ख़बर पीटीआई-भाषा की फीड से प्रकाशित की गयी है।

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