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जम्मू कश्मीर और लद्दाख में जलवायु परिवर्तन का असर! 87 ग्लेशियर 6.7 फीसदी पिघल गए, किसान भी हो रहे हैं प्रभावित

By सुरेश एस डुग्गर | Updated: March 6, 2023 15:26 IST

दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन का असर दिख रहा है। जम्मू-कश्मीर और लद्दाख भी इससे अछूते नहीं हैें। लद्दाख में पिछले तीन दशकों में करीब 87 ग्लेशियर 6.7 फीसदी पिघल गए हैं। वहीं, कश्मीर में कृषक समाज इससे प्रभावित हो रहा है।

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ठळक मुद्देलद्दाख में पिछले तीन दशकों में करीब 87 ग्लेशियर 6.7 फीसदी पिघल गए हैं, जयवायु परिवर्तन का असर।कश्मीर में भी वनों की तेजी से होती कटाई, उतार-चढ़ाव वाले तापमान और बाढ़ जैसी स्थितियों के लिए जिम्मेदार।पानी की कमी से कई किसान अपनी कृषि भूमि को अब बागवानी में बदलने के लिए मजबूर हो रहे हैं।

जम्मू: लद्दाख में किए गए एक ताजा शोध में पाया गया है कि पिछले तीन दशकों में करीब 87 ग्लेशियर 6.7 फीसदी पिघल गए हैं। कश्मीर में, वनों की कटाई, उतार-चढ़ाव वाले तापमान और बाढ़ जैसी स्थितियों के मुख्य कारणों में से एक रहे हैं। घाटी में पिछले साल 131 साल में सबसे गर्म मार्च का महीना देखा गया, जिसमें तापमान 27.3 सेल्सियस दर्ज किया गया, जो सामान्य से 9-11 डिग्री अधिक था।

जलवायु परिवर्तन का प्रभाव कश्मीर के कृषक समुदाय के लिए पहले से ही गंभीर साबित हो रहा है। पिछले वर्ष इस क्षेत्र में 80 प्रतिशत कम वर्षा दर्ज की गई, जिससे तापमान में वृद्धि हुई। इस बार भी मौसम द्वारा कहर बरपाने की चेतावनियों के चलते कश्मीरी ही नहीं बल्कि लद्दाख के नागरिक भी चिंतित हैं।

भले ही कश्मीर क्षेत्र में ग्रीनहाउस गैसों की कम खपत होती है, पर यह पश्चिमी विक्षोभ से अत्यधिक प्रभावित हो रहा है। कश्मीर एक कृषि-राज्य होने के नाते कुछ शर्तों की आवश्यकता होती है, जिसमें पानी की उपलब्धता, कृषि और बागवानी प्रथाओं और यहां तक कि बिजली उत्पादन के लिए भी शामिल है। शोधकर्ताओं ने चेतावनी दी कि यदि ग्लेशियरों के संरक्षण के लिए आवश्यक कदम नहीं उठाए गए तो आने वाले समय में अर्थव्यवस्था चरमरा जाएगी।

जलवायु परिवर्तन ने पानी की कम आवश्यकता के कारण किसानों को अपनी कृषि भूमि को बागवानी में बदलने के लिए प्रेरित किया है। आधिकारिक दस्तावेजों से पता चलता है कि कश्मीर में धान की खेती के तहत भूमि पिछले एक दशक में लगभग 30,000 हेक्टेयर खो चुकी है। प्रदेश पहले से ही चावल के उत्पादन में 50 प्रतिशत की कमी का सामना कर रहा है और इस सदी के अंत तक इसमें 29 प्रतिशत की और गिरावट आएगी।

गर्मियों में असामान्य ओलावृष्टि और आंधी के कारण चेरी, बेर, आड़ू और खुबानी जैसे फलों को नुकसान हुआ और सर्दियों के मौसम में असमय हुई बर्फबारी से सेब की फसल को भारी नुकसान हुआ। शोपियां के अवनीर गांव के एक किसान जुनैद राथर ने अधिक लाभ कमाने के लिए धान की खेती से सेब की खेती की ओर रुख किया। हालांकि उसका कहना था कि तापमान में बदलाव, रात के तापमान में वृद्धि सहित, इस मौसम में सेब के उत्पादन की गुणवत्ता खराब हुई है।

राथर के अनुसार, 'हमें तय किए गए समय, से एक महीने पहले सेब तोड़ना पड़ता था और जल्दी कटाई के कारण सेब की कठोरता अपनी अधिकतम ताकत तक नहीं पहुंच पाती है, जिससे शेल्फ-लाइफ कम हो जाती है।' उसका कहना था कि जलवायु परिवर्तन के कारण अब हमें हर सीजन में घाटा हो रहा है।

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