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जलवायु संकट की स्थितियां 17वीं शताब्दी से ही बन रही हैं: अमिताव घोष

By भाषा | Updated: October 26, 2021 16:40 IST

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नयी दिल्ली, 26 घोष बेहद विपरीत मौसमी परिस्थितियों से जूझती दुनिया में जलवायु परिवर्तन शब्द समकालीन समय में चर्चा का विषय बन गया है। लेखक अमिताव घोष कहते हैं कि संकट 17 वीं शताब्दी से बना हुआ है और इस मुद्दे से निपटने के लिए शुरुआत करने से पहले इतिहास को ध्यान में रखना अनिवार्य है।

घोष कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन न सिर्फ भविष्य बल्कि अतीत की भी समस्या है। उनकी नई किताब “द नटमेग्स कर्स: पेराबल्स फॉर ए प्लेनेट इन क्राइसिस” ऐसे समय में आई है जब असामान्य रूप से भारी बारिश ने देश के कई हिस्सों में तबाही मचाई है, विशेष रूप से पहाड़ी राज्य उत्तराखंड और तटीय केरल में।

घोष ने न्यूयॉर्क से एक वीडियो साक्षात्कार में ‘पीटीआई-भाषा’ को बताया, “सामान्य तौर पर, जब हम जलवायु संकट या ग्रह पर संकट के बारे में सोचते हैं, तो हम हमेशा भविष्य के संदर्भ में सोचते हैं, हम खुद के पूरी तरह से नए युग में होने के बारे में सोचते हैं।”

उन्होंने कहा, “लेकिन वास्तव में, यह युग पूरी तरह से अतीत से जुड़ा है। निरंतरता बेहद स्पष्ट है... यह 17वीं शताब्दी तक साफ दिखती है। ये निरंतरता किसी को भी अच्छी तरह से दिखने के लिहाज से पूरी तरह से स्पष्ट है।”

अपनी नवीनतम पुस्तक में, “द ग्रेट डिरेंजमेंट: क्लाइमेट चेंज एंड द अनथिंकेबल” और “द हंग्री टाइड” के लेखक जलवायु परिवर्तन के आधुनिक संकट के लिए बहुत आवश्यक ऐतिहासिक संदर्भ प्रदान करते हैं जैसा कि हम आज देखते हैं।

जलवायु संकट को वह परत दर परत पेश करते हैं जो जलवायु परिवर्तन का इतिहास प्रतीत होता है और अपने पाठकों को उस शुरुआत में ले जाता है जब ग्रह ने बदलना शुरू कर दिया होगा और वह बेहतरी के लिये नहीं हुआ होगा।

किताब के मुताबिक वह पल बंदा द्वीपसमूह का 1621 में डच ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा उपनिवेश होगा जो जायफल के व्यापार पर एकाधिकार स्थापित करना चाहती थी जिस पर उस समय इंडोनेशियाई द्वीपसमूह के स्थानीय लोग का अधिपत्य था।

घोष के मुताबिक, इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, डच लोगों ने बांदानी लोगों के घरों को जला दिया, उनमें से अधिकतर को मार डाला और शेष को जंगलों में खदेड़ दिया। घोष लिखते हैं कि बांदानी लोगों ने डच अधिग्रहण का विरोध तो किया लेकिन अंततः भुखमरी और/या बीमारियों के कारण घुटने टेक दिए।

वह अपनी किताब में तर्क देते हैं कि सरल शब्दों में कहें तो डच लोगों ने अपने फायदे के लिए एक पूरी जनजाति को लगभग पूरी तरह से खत्म कर दिया। दुनिया भर की बात करें तो उत्तरी अमेरिका में कनेक्टिकट में, पेक्वॉट जनजाति को बाद के फायदे के लिए अंग्रेजी आक्रमणकारियों द्वारा इसी तरह से मिटा दिया गया था।

मानव जाति की इस स्वाभाविक लाभ चाहने वाली प्रकृति की घोष निंदा करते हैं, और ग्रह की वर्तमान स्थिति के लिए इसे दोषी ठहराते हैं।

घोष कहते हैं, “हमें यह समझने की कोशिश करनी होगी कि यह पूरा विचार कि हम मनुष्य के रूप में केवल लाभ के लिए मौजूद हैं ... यह पहली चीज है जिसे हमें पीछे छोड़ना है।”

उन्होंने कहा, “यह सिर्फ एक निश्चित प्रकार के पूंजीवाद के तहत स्वीकार्य है कि हम केवल लाभ के लिए मौजूद हैं। हमें जीवन के अन्य आदर्श खोजने होंगे, हमें मनुष्य के रूप में अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के अन्य तरीके खोजने होंगे।”

घोष (65) गैर-गल्प श्रेणी के अपने पिछले काम “द ग्रेट डिरेंजमेंट: क्लाइमेट चेंज एंड द अनथिंकेबल” के बाद जलवायु परिवर्तन पर एक विश्वसनीय और प्रभावशाली आवाज के रूप में उभरे। यह किताब 2016 में आई थी और आलोचकों व पाठकों द्वारा इसमें घोष के काम को काफी सराहा गया।

उन्होंने कई साल पहले भी इस मुद्दे को उठाया था। वास्तव में, यह पश्चिम बंगाल में सुंदरबन में उनकी यात्रा थी, जब वे 2004 में अपना उपन्यास “द हंग्री टाइड” लिख रहे थे, जिसने जलवायु परिवर्तन में लेखक की रुचि को बढ़ाया।

उन्होंने कहा, “पहले से ही वर्ष 2000 में, यह पूरी तरह से स्पष्ट था कि जलवायु परिवर्तन का उस क्षेत्र पर काफी प्रभाव पड़ रहा था।”

उनका 2019 में आया पिछला उपन्यास ‘द गन आइलैंड’ भी जलवायु परिवर्तन के विषय से संबंधित है।

घोष के बंगाली मूल के होने ने इस मुद्दे पर उनका ध्यान और आकृष्ट किया।

उन्होंने कहा,“मैं एक बंगाली हूं, और दुनिया के किसी भी अन्य हिस्से की तुलना में, बंगाल अविश्वसनीय रूप से ‘कमजोर’ है। हम इसे लगातार देखते हैं...सुंदरबन मूल रूप से पानी के नीचे जा रहा है, और हम देख सकते हैं कि कितने लोग बंगाल से विस्थापित हुए हैं।”

घोष कहते हैं, “पिछले 15-20 वर्षों में, दिल्ली, गोवा और भारत के पश्चिमी तट का मजदूर वर्ग मूल रूप से बंगाल, छत्तीसगढ़ और इन क्षेत्रों से काफी संख्या में आया है और इसके पीछे जलवायु परिवर्तन की काली छाया है।”

न केवल पारिस्थितिक रूप से बल्कि राजनीतिक और सामाजिक रूप से, ग्रह के अतीत के संदर्भ में जलवायु परिवर्तन को देखने की आवश्यकता पर बल देते हुए, लेखक बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन की समकालीन धारणा उन लोगों के लिए कैसे और क्यों अलग है जो ऐतिहासिक रूप से उपनिवेशवादी बनाम उपनिवेश रहे हैं।

वैश्विक दक्षिण के लिए, जो भारत, चीन, इंडोनेशिया और अफ्रीकी देशों जैसे देश हैं, “जलवायु परिवर्तन अतीत में निहित एक समस्या है।”

घोष बताते हैं, “यदि आप पश्चिम के लोगों से पूछें, ‘जलवायु परिवर्तन क्या है?’ पश्चिमी लोग हमेशा कहेंगे कि जलवायु परिवर्तन एक वैज्ञानिक मुद्दा है, एक प्रकार का तकनीकी मुद्दा है ... इसे प्रौद्योगिकी के माध्यम से ठीक किया जा सकता है... इसे विज्ञान के माध्यम से सुलझाना होगा... “यदि आप भारत, चीन, इंडोनेशिया और अफ्रीका जाते हैं... वे करेंगे कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन पश्चिमी देशों द्वारा निर्मित एक समस्या है।” घोष ने समझाया, “यह समृद्ध देशों द्वारा बनाया गया है, जिन्होंने हमारे सभी संसाधनों को विनियोजित किया था जब हम गरीब और कमजोर थे।”

आगे का रास्ता क्या है? यह पूछे जाने पर उन्होंने जवाब में कहा, “मैं वास्तव में आपको यह नहीं बता सकता कि सामान्य रूप से आगे का रास्ता क्या है, और न ही यह विशेष रूप से मुझे अपने लिए इसमें रुचि दिखती है। जिस चीज में मुझे सबसे ज्यादा दिलचस्पी है, वह है, ‘लेखकों के लिए आगे का रास्ता क्या है? साहित्य में आगे का रास्ता क्या है? जिस दुनिया में हम अभी हैं, उसके लिए हम साहित्य का निर्माण कैसे शुरू करें?’ और उस पर मेरा जवाब काफी सरल है ... मुझे लगता है कि हमें जो काम शुरू करना है, वह वही है जो लेखक अतीत में करते थे, जो कोशिश करना और खोजना है... कोशिश करना और गैर-मानव संस्थाओं को आवाज देना।

Disclaimer: लोकमत हिन्दी ने इस ख़बर को संपादित नहीं किया है। यह ख़बर पीटीआई-भाषा की फीड से प्रकाशित की गयी है।

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