पटनाः बिहार में अल्पसंख्यक मतदाताओं को रिझाने के लिए महागठबंधन के साथ-साथ एआईएमआईएम और एनडीए के घटक दल जदयू व हम का प्रयास जारी है। दरअसल, साल 2023 की जातिगत जनगणना ने साफ किया था कि बिहार में मुसलमानों की संख्या 2.3 करोड़, यानी 17.7 फीसदी है। यह समुदाय 50 से 70 सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाता है। इसके बावजूद 2020 की विधानसभा में मुस्लिम विधायकों की संख्या घटकर 19 रह गई थी। उनमें 8 राजद, 5 एआईएमआईएम, 4 कांग्रेस, 1 बसपा और 1 भाकपा-माले से थे।
यहां तक कि जदयू ने 10 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे, उसे एक भी जीत नहीं मिली। बिहार में सीमांचल के किशनगंज, अररिया, कटिहार और पूर्णिया में तो ये निर्णायक होते हैं। इसके साथ ही राज्य के सीवान, दरभंगा और पटना जैसे इलाके में भी इनकी अच्छी खासी पकड़ देखी जाती है। बात करें तिरहुत प्रमंडल के 6 ज़िलों की तो उनमें 4 ज़िलों में यानी दरभंगा ज़िले में हैं 22 फीसदी मुस्लिम हैं।
जबकि पश्चिम चंपारण में 22 फीसदी, सीतामढ़ी में 22 फीसदी और पूर्वी चंपारण में 19 फीसदी, यानी इस प्रमंडल में ये 4 जिले हैं, जिनमें मुस्लिम 18 फीसदी से ज़्यादा हैं। इस तरह सीमांचल के 4 और 4 ये मिलाकर 8 जिले हो गए। इनके अलावा 4 और ज़िले हैं जहां 18 फीसदी मुस्लिम हैं। इसमें सीवान, भागलपुर, सुपौल और मधुबनी।
इस तरह बिहार के 12 में इनका वोट प्रतिशत ज्यादा है। उधर, लखीसराय में सिर्फ 4 फीसदी मुस्लिम हैं। शेख़पुरा में सिर्फ 6 फीसदी हैं, बक्सर में भी 6 फीसदी ही हैं, नालंदा, जहानाबाद और भोजपुर में 7 फीसदी ही हैं। सीमांचल में 24 सीटे हैं। इस लिहाज़ से देखें तो यहां मुस्लिम मतदाता बहुत ज़्यादा सीटों पर जीत-हार तय करते हैं।
सीमांचल में सुरजापुरी मुस्लिम अलग हैं। ये किशनगंज में ज़्यादा माने जाते हैं। फिर शेरशाहबादी मुस्लिम अलग है। ये ज़्यादा कटिहार में हैं। और फिर तीसरे हैं कुल्हैया मुसलमान। ये अररिया में ज़्यादा हैं। तो अलग-अलग पार्टियां इनकी अलग-अलग जातियों के उम्मीदवारों को खड़ा कर देती हैं। वहां महागठबंधन से मुस्लिम उम्मीदवार होते हैं, फिर ओवैसी की एआईएमआईएम के होते हैं।
जदयू के भी होते हैं कई बार। लेकिन यहां एआईएमआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी ने सीमांचल में सारी सियासी हवा बदल दी। भले ही 2015 के विधानसभा चुनाव में ओवैसी के दल को कोई जीत नहीं मिली हो लेकिन यह दिखाने के लिए कि वह सिर्फ पतंग उड़ाने (पतंग एआईएमआईएम का चुनाव चिन्ह है) के लिए नहीं आए थे, हैदराबाद के सांसद सीमांचल में डटे रहे।
उनकी कोशिशें रंग लाई, जब पिछले विधानसभा चुनावों से ठीक पहले उनके उम्मीदवार ने किशनगंज से उपचुनाव जीता। 2020 में एआईएमआईएम ने सीमांचल की राजनीति बदल दी। उनकी पार्टी ने पांच सीटें जीतीं जिसमें किशनगंज और पूर्णिया में दो-दो और अररिया में एक शामिल रही।
इतना ही ओवैसी ने बिहार भर में एक दर्जन से ज़्यादा सीटों पर राजद-कांग्रेस की संभावनाओं को नुकसान पहुंचाया। 2020 के अनुभव के आधार पर ही इस बार ओवैसी खुद चुनाव प्रबंधन के लिए किशनगंज में डेरा डाले हुए हैं। हालांकि पिछले बार ओवैसी के दल से 5 विधायक जरूर जीते लेकिन बाद में पांच में से चार विधायक उन्हें छोड़कर राजद में शामिल हो गए।
पिछले तीन दशकों का मुस्लिम वोटिंग पैटर्न कहता है कि इससे राजद को 76 फीसदी वोट मिलता है। ऐसे में ओवैसी के एआईएमआईएम के आने से बिहार में राजद को सबसे बड़ा झटका लगा । हालांकि ओवैसी के बढ़ते जनाधार के बीच उन पर आरोप लगता है कि एआईएमआईएम के मैदान में आने से विपक्ष के वोट बंट जाते हैं, जिसका फायदा भाजपा को होता है।
वहीं ओवैसी का कहना है कि "यह अब सबको पता है कि मैंने लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव को लेटर लिखकर गठबंधन की इच्छा जताई थी। लेकिन कोई जवाब नहीं आया। अब, हमें अपने पैर जमाने के लिए वह सब करना होगा जो हम कर सकते हैं। बता दें कि मुसलमानों का एक वर्ग मानता है कि ओवैसी संसद में मुसलमानों से जुड़े मुद्दे उठाते हैं।
वहीं ओवैसी की ओर से कांग्रेस और राजद जैसे दलों पर आरोप लगाया जाता रहा है कि वह मुस्लिमों को केवल वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। साथ ही भाजपा पर आरोप लगाते हैं कि वह मुस्लिमों पर हमलावर रहकर सिर्फ हिंदू वोटरों को गोलबंद करते हैं न कि विकास का काम होता है। ओवैसी की आक्रामक छवि का सीधा फायदा उन्हें मुस्लिम वर्ग से जोड़ता है।
इसका बड़ा प्रभाव सीमांचल के वोटरों पर पड़ा और 2020 के चुनाव में ओवैसी ने करिश्मा कर दिया। उल्लेखनीय है कि 90 के दशक में जब लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार की राजनीति उभार पर थी, तब “सामाजिक न्याय” के एजेंडे में मुसलमान केंद्रीय भूमिका में थे। बिहार विधानसभा में मुस्लिम प्रतिनिधित्व की कहानी अब गिरावट की कहानी बन गई है।
1985 में जब विधानसभा में 34 मुस्लिम विधायक पहुंचे थे, तब यह हिस्सा 10 प्रतिशत से ऊपर था। 2000 के बाद यह आंकड़ा लगातार नीचे गया। न सिर्फ इसलिए कि उन्हें टिकट कम मिले, 2015 में 24 और 2020 में सिर्फ 19 मुस्लिम विधायक जीतकर पहुंचे। इस बार विश्लेषकों का अनुमान है कि यह संख्या इससे भी कम रह सकती है।
सियासत के जानकार मानते हैं कि यह गिरावट समुदाय की जनसंख्या अनुपात के कारण नहीं बल्कि दलों की रणनीति में हुए बदलाव का नतीजा है। अब अधिकांश दल जातीय समीकरण और बहुसंख्यक संतुलन को केंद्र में रखकर टिकट बांट रहे हैं, जिससे अल्पसंख्यक उम्मीदवारों की संभावना घट गई है। जिन सीटों पर उनका प्रभाव रहा, वहां अब अन्य जातियों के प्रत्याशियों को प्राथमिकता दी जा रही है।
2020 में जब जदयू-भाजपा गठबंधन बना, तो “पसमांदा मुसलमान” की चर्चा जरूर हुई, लेकिन व्यवहार में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया, जदयू ने 11 मुस्लिम चेहरों को मौका दिया, मगर नतीजा शून्य रहा। विश्लेषक मानते हैं कि तब से दलों ने यह मान लिया कि मुस्लिम उम्मीदवार अब “वोट ट्रांसफर” नहीं करा पाते।
इसलिए अब पार्टियां मुस्लिम बहुल इलाकों में भी गैर-मुस्लिम उम्मीदवार उतार रही हैं, ताकि समीकरण “क्रॉस कम्युनिटी” वोट के जरिए संभल सके। नीतीश कुमार की राजनीति हमेशा सामाजिक संतुलन पर केंद्रित रही है। एक समय था जब जदयू ने अपने मुस्लिम चेहरों के दम पर ‘सेक्युलर इमेज’ कायम रखी थी।
लेकिन एनडीए गठबंधन में आने के बाद पार्टी ने ख़ुद को नए वोट बैंक की सीमा में बांध लिया है। इसी तरह लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद जो कभी यादव-मुस्लिम समीकरण की पहचान मानी जाती थी अब जातीय विविधता के नाम पर टिकट बंटवारे में अदला-बदली कर रही है। यानी राजनीतिक हित बदलने के साथ-साथ वो ‘माई समीकरण’ भी धीरे-धीरे इतिहास बन रहा है।