पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी के लाहौर से इस्लामाबाद लॉन्ग मार्च के दौरान इमरान खान के पैर में गोली मारी गई और कुछ कार्यकर्ता भी हमले का शिकार हुए. इस घटना का जिक्र करते हुए एक पाकिस्तानी अखबार ने लिखा है कि एक साहसी कार्यकर्ता और इमरान खान के सौभाग्य के कारण राष्ट्र एक गंभीर त्रासदी से बच गया.
पाकिस्तान में शायद ही कोई ऐसा नेता रहा हो जिस पर हमला न हुआ हो, तो फिर इमरान खान पर हमले को इस अखबार ने पाकिस्तान की त्रासदी से जोड़कर क्यों देखा? क्या ऐसे पाकिस्तान त्रासदी से बाहर है? जिस देश की बुनियाद ही उसके रहनुमाओं ने त्रासदी पर रखी हो वह देश भला इससे विलग कैसे हो सकता है? अथवा क्या पाकिस्तान की सेना और इमरान अहमद खान नियाजी एक नई त्रासदी के लिए वातावरण निर्मित कर रहे हैं?
एक बात तो देखनी होगी कि आखिर पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के मुखिया लेफ्टिनेंट जनरल नदीम अहमद अंजुम, इंटर सर्विसेज पब्लिक रिलेशंस (आईएसपीआर) के बाबर इफ्तिखार को प्रेस कॉन्फ्रेंस करके सफाई क्यों देनी पड़ी? यह प्रेस कॉन्फ्रेंस 25 अक्टूबर यानी उसी दिन हुई जब इमरान खान ने लाहौर से लॉन्ग मार्च शुरू किया था. इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में डेढ़ घंटे तक सेना का बचाव किया गया. अब सवाल यह उठता है कि आखिर उस आईएसआई को अपना बचाव करने के लिए विवश क्यों होना पड़ रहा है जिससे पूरा पाकिस्तान डरता था?
वैसे तो पाकिस्तान में लोकतंत्र कभी सशक्त हो ही नहीं सकता, वहां या तो कट्टरपंथ मजबूत होगा या फिर सेना. राजनीतिक नेताओं को इन्हीं की कठपुलियां बनकर काम करना होगा. यदि इमरान खान ऐसा दुस्साहस करने जा रहे हैं कि सेना से टक्कर लें तो फिर संभव है कि पाकिस्तान का लोकतंत्र और सेना का इतिहास कोई नया अध्याय जोड़े. यह भी संभव है कि यह टकराव पाकिस्तान को वहां तक ले जाए जहां से मार्शल लॉ की सीमा शुरू हो जाती है.
ऐसे में सवाल यह उठता है कि रावलपिंडी और इस्लामाबाद की सत्ताएं इमरान के समर्थकों से कैसे निपटेंगी? दरअसल इमरान पाकिस्तान में आम चुनाव जल्द से जल्द चाहते हैं. कारण यह कि इमरान खान, पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ और कट्टरपंथ का संबंध सत्ता पर निर्भर है. इसलिए यदि देर हुई तो यह संबंध दरक जाएगा.
यही वजह है कि इमरान सेना प्रमुख बाजवा के उत्तराधिकारी की नियुक्ति भी जल्द से जल्द चाहते हैं. हालांकि बाजवा ने कुछ दिन पहले ही इस बात को दोहराया था कि 29 नवंबर को वे सेवानिवृत्त हो जाएंगे. लेकिन जो स्थितियां सामने दिख रही हैं, उनसे यह लगता नहीं है कि अभी वे जाएंगे या सरकार उन्हें जाने देना चाहेगी.