रहीस सिंह
वैचारिक और तकनीकी विकास के अर्थों में आज के यूरोप को देखने की कोशिश करते समय न जाने क्यों वह यूरोप नहीं दिखता जो वाल्तेयर और इरासमस सहित बहुत से विचारवादियों और अनुसंधानकर्ताओं की खोजों की बुनियाद पर खड़ा था. वह पुनर्जागरण के उस बुद्धिमत्तावाद से निर्मित हुआ था जिसमें एक ‘नए मानव’(न्यू मैन) और एक ‘नई दुनिया’ (न्यू वर्ल्ड) की खोज की ताकत थी. शायद उसी के दम पर उसने पूरी दुनिया पर कई सदियों तक शासन किया और दीर्घकालिक प्रभाव को संसार के मानस पटल पर छोड़ा. लेकिन अब वही यूरोप द्वंद्वों का शिकार दिख रहा है.
हालांकि अभी भी उसमें नवाचार की चाह दिख रही है लेकिन कंजरवेटिज्म उस पर प्रभावी होता जा रहा है. उसमें आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस युग में नई प्रतिस्पर्धा की महत्वाकांक्षा तो दिख रही है लेकिन वह ‘फार राइट’ (दक्षिण पंथ) और ‘सेंटर लेफ्ट’ (मध्य मार्ग) के संघर्ष में उलझ गया है.
यूरोप से प्रकाशित एक अखबार को पढ़ते समय एक संदर्भ में आयरिश लेखक डब्ल्यू. बी. यीट्स की पुस्तक ‘द सेकंड कमिंग’ की उन पंक्तियों का जिक्र मिला जिनमें आज भी यूरोप के विश्लेषक सूत्र खोजने की कोशिश कर रहे हैं. विशेषकर तब, जब वहां कोई राजनीतिक संकट उभर कर सामने आता है.
आजकल भी उनकी लिखी ये पंक्तियां वहां दोहराई जाती दिखीं- ‘सब कुछ बिखर रहा है, केंद्र को थामे रहना मुश्किल है.’ इसके साथ ही उनकी कविता की एक पंक्ति और लिखी थी जिसमें कहा गया है- ‘सबसे अच्छे लोग अपने विश्वास को खो चुके हैं और सबसे बुरे लोग पूरी ऊर्जा से भरे हुए हैं.’ तो क्या सच में आज के यूरोप की राजनीति का यही हाल है?
या फिर यीट्स की ये पंक्तियां अपने पूर्वानुमानों में बहुत सी खामी समेटे हुए हैं? यह तो सभी ने देखा ही होगा कि जिस ब्रिटेन के लोग कुछ साल पहले तक सेंटर-लेफ्ट लेबर पार्टी के ‘क्वासी नेशनलिस्ट’ और ‘क्वासी लिबरल’ एप्रोच को खारिज कर रहे थे, उन्होंने ही आखिर में कंजरवेटिव्स के राष्ट्रवाद से मुंह मोड़ लिया.
आखिर क्यों? वे ठीक 180 डिग्री कैसे घूम गए? यही सवाल अब नीदरलैंड को देखकर भी किया जा रहा है, जहां हाल ही में हुए चुनाव में डच मतदाताओं ने यूरोप के परंपरागत मध्यमार्गी दलों की समस्याओं को उजागर किया.
गौर से देखें तो नीदरलैंड के मतदाताओं ने, जो मुख्यधारा के दलों से निराश और क्रोधित थे, उन्होंने उन उम्मीदवारों की ओर रुख किया जो ‘सिस्टम-विरोधी’ छवि पेश करते हैं जिसके कारण अतिवादी शक्तियां (रेडिकल फ्रिंजेज) वोट बटोर ले जाती हैं. लेकिन जब फार राइट्स (दक्षिणपंथ) वाले दल सत्ता आए तो जनता कुछ ही दिनों में उनसे दूर होने लगी. इस मोहभंग का असल कारण क्या है?
‘सेंटर लेफ्ट’ (वाममार्गी) का लम्बा अनुभव और वृहद आधार, अथवा कुछ और? आखिर वे फिर सेंटर लेफ्ट की ओर क्यों लौटे? ध्यान रहे कि नीदरलैंड में गीर्ट वाइल्डर्स के नेतृत्व वाली ‘फ्रीडम पार्टी’ को 2023 में इसलिए अवसर मिला क्योंकि डच जनता परंपरागत मध्यमार्गी (सेंटर लेफ्ट) की राजनीति से थक चुकी थी. लेकिन वाइल्डर्स की पार्टी के पास वास्तविक समस्याओं- जैसे अप्रवासन संकट और आवास संकट, का कोई ठोस समाधान नहीं था. परिणाम यह हुआ कि डच मतदाता रॉब जेटेन जैसे युवा की डेमोक्रेटिक 66 (डी 66) की ओर मुड़ गए.
रॉब जेटेन अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा के ‘यस वी कैन’ से प्रेरित होकर अपने देश के मतदाताओं को भरोसा दिला रहे थे- ‘यह संभव है.’ यही नहीं उन्होंने गीर्ट वाइल्डर्स की उस राजनीति को भी प्रभावी चुनौती दे दी जो इमिग्रेशन और इस्लाम-विरोध पर टिकी थी. ऐसा क्यों हुआ? क्या इमिग्रेशन यूरोप के लिए कोई प्रभावी या चिंताजनक विषय नहीं है? या फिर यूरोप का दक्षिणपंथ सिर्फ इसी पर ठिठक कर रह गया है जबकि लोगों की आवश्यकताएं इससे अलग हैं?
जहां तक इमिग्रेशन का प्रश्न है तो काफी समय पहले जर्मनी से प्रकाशित होने वाले दैनिक मेनहाइमर मॉर्गन ने लिखा था-जर्मनी और यूरोप में बड़े पैमाने पर हो रहा आप्रवासन सिर्फ राष्ट्रीय समस्या नहीं है बल्कि यूरोप में लोगों की एकजुटता को भी खतरे में डाल रहा है. तो यह प्रश्न भी उठा कि क्या सच में ‘ब्रेड, बाथ और बेड’ की न्यूनतम चाहत वालेे शरणार्थी अपनी अभिशप्त जिंदगियों को जीने के लिए विवश हैं और यूरोप की जमीन पर अपनी खोई हुई जिंदगियों की तलाश कर रहे हैं अथवा उनके पीछे कोई ऐसी ताकत काम कर रही है जो यूरोप की एकजुटता के लिए खतरा है. यह संकट असली है या बस फोबिया है?
केवल फोबिया तो नहीं हो सकता. विएना के आतंकी हमले और यूरोप के अन्य भागों में हो रही ऐसी घटनाएं फोबिया नहीं हो सकतीं बल्कि यूरोपीय मन पर गहरा प्रभाव और उसकी परम्परागत जीवन-शैली में विघ्न डालने वाली घटनाएं हैं. संभवतः यूरोप में ‘फार राइट’ का उभार इसी की देन है. ध्यान रहे कि पोप बेनेडिक्ट 16वें ने काफी पहले जर्मनी के एक विश्वविद्यालय में भाषण देते हुए कहा था कि यूरोप अपने भविष्य में आस्था खो रहा है क्योंकि वह खुद को इतिहास से मिटाने के रास्ते पर चल पड़ा है. लेकिन कब से? उससे कुछ पहले से या बहुत पहले से? जिस चिंता से पोप बेनेडिक्ट 16वें ग्रस्त थे वही चिंता तो फ्रांसीसी उपन्यासकर मीशेल वेलबेक के ‘सबमिशन’ में भी दिखी थी. वही कभी डोनाल्ड ट्रम्प व्यक्त करते दिखे तो कभी इमैनुएल मैक्रों या अन्य यूरोपीय नेता. लेकिन हुआ क्या? आखिर पूरे यूरोप और अमेरिका में ‘फार राइट्स’ प्रायः व्यक्तिवादी क्यों दिखाई देते हैं? पर्सनैलिटी कल्ट उनके लिए प्रमुख क्यों है? यह उनकी ताकत है या उनकी कमजोरी का प्रतीक? क्या अभी तक वे उस विचार का विकल्प तलाश पाए हैं जिसने यूरोप से लेकर यूरोपीय यूनियन तक का निर्माण किया?
फिलहाल यूरोपीय राजनीति में ‘फार राइट’ फिर ‘सेंटर लेफ्ट’ और फिर... का सिलसिला एक पैटर्न बनता दिख रहा है, कारण चाहे कुछ भी हों. नीदरलैंड, ऑस्ट्रिया, पोलैंड, इटली, हंगरी और स्लोवाकिया जैसे देश इन्हीं लहरों के सहारे आगे बढ़ रहे हैं. लेकिन वहां अभी किसी ‘अपराजेय संयोजन’ (अनबीटेबल कॉम्बिनेशन) की संभावना पूरी होती नहीं दिखी.