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North Korea-South Korea: दुनिया को दुश्मनी नहीं, भाईचारे के पैगाम की जरूरत....

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: July 5, 2024 11:22 IST

North Korea-South Korea: उत्तर और दक्षिण कोरिया भी ऐसे ही दुश्मन हैं, जो कभी भाई-भाई थे. दुश्मनी भी ऐसी कि परमाणु हथियार बनाने की होड़ में उत्तर कोरिया कंगाल ही हो गया!

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ठळक मुद्देपरमाणु हथियारों की धमकी से मामला अब नीचे उतर कर कचरे भेजने तक आ गया है.दोनों देशों द्वारा भेजे गए गुब्बारों में अभी तक कोई खतरनाक पदार्थ नहीं मिला है. अपनत्व की भावना कहीं बची हुई है जो इस कचरा युद्ध को अहानिकर बनाए हुए है?

हेमधर शर्माः उत्तर और दक्षिण कोरिया के बीच इन दिनों दिलचस्प बैलून युद्ध छिड़ा हुआ है. उत्तर कोरिया गुब्बारों में गोबर, सिगरेट के टुकड़े, फालतू कागज सहित अन्य कचरा भरकर दक्षिण कोरिया भेज रहा है तो दक्षिण कोरिया पर्चे, यूएसबी स्टिक, लाउड स्पीकर आदि भेज रहा है, जिन्हें उत्तर कोरिया की सरकार राजनीतिक कूड़ा कहती है. ध्यान रहे कि उत्तर और दक्षिण कोरिया कभी एक ही देश थे, जो कई दशक पहले टूट कर दो बने, जैसे दुनिया के कई अन्य देश बने हैं. कहते हैं अगर मिल-जुलकर रहें तो भाई से बढ़कर कोई दोस्त नहीं होता और दुश्मनी पर उतर आएं तो भाई से बढ़कर कोई दुश्मन भी नहीं होता! उत्तर और दक्षिण कोरिया भी ऐसे ही दुश्मन हैं, जो कभी भाई-भाई थे. दुश्मनी भी ऐसी कि परमाणु हथियार बनाने की होड़ में उत्तर कोरिया कंगाल ही हो गया!

गनीमत है कि परमाणु हथियारों की धमकी से मामला अब नीचे उतर कर कचरे भेजने तक आ गया है. यह भी कम राहत की बात नहीं है कि दोनों देशों द्वारा भेजे गए गुब्बारों में अभी तक कोई खतरनाक पदार्थ नहीं मिला है. कहते हैं अपना खून आखिर अपना ही होता है. तो क्या दोनों देशों के निवासियों में अभी भी अपनत्व की भावना कहीं बची हुई है जो इस कचरा युद्ध को अहानिकर बनाए हुए है?

हर देश में कुछ लोग युद्ध के समर्थक होते हैं तो कुछ शांति के. युद्ध के समर्थक तो गुब्बारों के जरिये कचरा भेज ही रहे हैं, बैलून युद्ध ने शांति के समर्थकों के लिए भी एक मौका दिया है कि वे गुब्बारों के जरिये अच्छी चीजें भेजें. शांति के समर्थक दरअसल हर जगह थोड़ी निष्क्रिय प्रकृति के होते हैं जिससे युद्ध के समर्थक उन पर हावी हो जाते हैं.

पर दुनिया अब युद्धों से तबाह होने के कगार पर पहुंच चुकी है और अगर अभी भी शांति के समर्थक निष्क्रिय बने रहे तो फिर उनके लिए करने को कुछ बचेगा ही नहीं. जरूरी नहीं है कि सक्रियता हम युद्ध के मैदान में ही दिखाएं. दरअसल शांति के समर्थकों के लिए सर्वाधिक काम शांतिकाल में ही होता है. शुरुआत हम अपने घर से कर सकते हैं.

वास्तव में हम अपने बच्चों को व्यापकता नहीं, संकीर्णता सिखाते हैं; बांटना नहीं, छीनना सिखाते हैं; परमार्थ नहीं, स्वार्थ सिखाते हैं और जब वे बड़े होते हैं तो अपने भाई के साथ भी ऐसा ही व्यवहार करते हैं. घर हो या राष्ट्र, वह टूटता ऐसे लोगों की वजह से ही है. इसलिए अगर हम अपने बच्चों में ‘मैं’ नहीं, ‘हम’ की भावना भरें; लेना नहीं, देना सिखाएं; अधिकार नहीं, कर्तव्य पर जोर दें तो कोई कारण नहीं कि कोई घर या देश टूटे. बच्चे ही देश के भावी कर्णधार होते हैं, और ऐसे बच्चे जब बड़े होकर कचरा भेजने वालों को भी कलाकृतियां भेजेंगे, दुश्मनी का बदला दोस्ती से चुकाएंगे, तब भाई-भाई एक-दूसरे के खून के प्यासे नहीं होंगे बल्कि एक-दूसरे की सुख-समृद्धि में सहायक होंगे; फिर चाहे वे इंसान हों या रूस-यूक्रेन, उत्तर-दक्षिण कोरिया, इंग्लैंड-आयरलैंड, चीन-ताइवान या भारत-पाकिस्तान जैसे देश.

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