Nepal Protests: निश्चित रूप से यह बड़े सुकून की बात है कि एक हिंसक विद्रोह के बाद नेपाल शांति की राह पर लौट रहा है. सर्वसम्मति से नेपाल की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश सुशीला कार्की को देश का अंतरिम प्रधानमंत्री बनाया गया है और उन्होंने कहा है कि छह महीने के भीतर लोकतांत्रिक सरकार को सत्ता सौंप दी जाएगी. कार्की ने जिस तरह की पारदर्शिता दिखाई है, वह वाकई प्रशंसनीय है. इस बीच नेपाल की चर्चा करते हुए लोग बांग्लादेश की भी चर्चा करने लगे हैं जहां मो. यूनुस ने लोकतंत्र का अपहरण कर रखा है. अभी भी तय नहीं है कि चुनाव कब होंगे?
जब नेपाल में तख्तापलट हुआ तो सबकी नजर इस बात पर थी कि सत्ता की अंतरिम बागडोर किसके हाथ आएगी? पहली नजर में यह माना जा रहा था कि काठमांडू के मेयर बालेंद्र शाह सत्ता संभाल सकते हैं क्योंकि वे आंदोलन का समर्थन कर रहे थे और युवाओं के बीच वे खासे लोकप्रिय भी हैं. दूसरी तरफ कुछ लोग इस बात की आशंका व्यक्त कर रहे थे कि क्या सेना सत्ता संभालेगी?
मगर नेपाल की सेना ने परिपक्वता का परिचय दिया और बिल्कुल ही हस्तक्षेप नहीं किया. इससे यह मार्ग प्रशस्त हुआ कि किसी ऐसे व्यक्ति को सत्ता की अंतरिम बागडोर मिले जिसका अपना कोई राजनीतिक लक्ष्य नहीं हो और जो नई पीढ़ी के नजरिए को समझ सके. सुशील कार्की उम्र के लिहाज से सत्तर पार हैं.
हम सब उन्हें ज्यादा नहीं जानते रहे हैं लेकिन उन्हें जानने वालों को पता है कि वे परिपक्वता के साथ नई सोच की समर्थक हैं. शिक्षा के सिलसिले में वे भारत के वाराणसी में तो रही ही हैं, उनका जन्म भी भारतीय सीमा के करीब विराटनगर के शंकरपुर में हुआ है. नेपाल-भारत सीमा के इन इलाकों में दोनों देशों की संस्कृति साझी है.
स्वाभाविक रूप से सुशीला कार्की ने लोकतंत्र की हवा को करीब से महसूस किया है. एक न्यायाधीश के रूप में भ्रष्टाचार और आतंकवाद के खिलाफ हमेशा सख्ती दिखाई है. हालांकि एक बार उनके खिलाफ महाभियोग लाने की कोशिश की गई थी लेकिन उसकी एक अलग कहानी है. उनके विरोधी सफल नहीं हो पाए क्योंकि वे षड्यंत्र रच रहे थे.
बहरहाल, कहने का आशय यह है कि सुशीला कार्की वो शख्सियत हैं जिन्होंने भले ही पढ़ाई राजनीति विज्ञान से की, लेकिन सत्ता की राजनीति कभी उनका मकसद नहीं रहा. यही कारण है कि अपने देश की खातिर उन्होंने पीएम का अंतरिम पद तो संभाला लेकिन तत्काल स्पष्ट कर दिया कि वे सत्ता में रहने नहीं आई हैं.
छह महीने के भीतर सत्ता लोकतांत्रिक सरकार के हाथों में होगी. पूरे देश ने उनकी इस घोषणा का स्वागत किया है. उम्मीद की जानी चाहिए कि नेपाल में अगली जो भी सरकार आएगी वह नई हवा लाएगी और फिर कोई खूबसूरत चीनी बाला बला बनकर नेपाल की राजनीति का अपहरण नहीं करेगी!
बहरहाल अब बड़ी तेजी से यह सवाल पूछा जा रहा है कि जिस तरह से नेपाल में लोकतांत्रिक सरकार के गठन के लिए जो तेजी दिखाई गई है, वही तेजी बांग्लादेश में क्योें दिखाई नहीं पड़ रही है. बांग्लादेश में शेख हसीना की सरकार का तख्तापलट हुए एक साल से भी ज्यादा हो गए लेकिन अभी तक चुनाव की तारीख भी तय नहीं हुई है.
मोहम्मद यूनुस ने जाहिर तौर पर छात्र विद्रोह और अंदरुनी तौर पर बड़े देशों के षड्यंत्र से हुए तख्तापलट के बाद जब सत्ता संभाली थी तो बांग्लादेश के लोगों को उम्मीद थी कि जल्दी ही उन्हें अपनी मर्जी की सरकार चुनने का मौका मिलेगा. यूनुस ने कहा भी कि जल्दी चुनाव कराए जाएंगे लेकिन जिस तरह से वे चुनाव को टालते गए हैं और नए-नए पेंच फंसाते गए हैं,
उससे यह स्पष्ट हो गया है कि वे बांग्लादेश के तानाशाह बनने की तैयारी कर रहे हैैं. वे इसमें कितना सफल हो पाएंगे, यह कहना मुश्किल है क्योंकि छात्र राजनीति से निकले लोग ही उनसे अलग हो गए हैं. मो.यूनुस की जिंदगी को करीब से समझने वाले लोग जानते हैं कि उनके लिए ‘बिल्ली के भाग से छींका फूटा’ वाली कहावत चरितार्थ हो गई.
बहुत सारे लोगों का मानना है कि वे अंतरिम सरकार के सलाहकार इसलिए चुने गए क्योंकि अमेरिका उन्हें पसंद करता रहा है. यूनाइटेड स्टेट्स प्रेसिडेंशियल मेडल ऑफ फ्रीडम और यूनाइटेड स्टेट्स कांग्रेसनल गोल्ड मेडल से वे नवाजे जा चुके हैं. 2006 में शांति के नोबल पुरस्कार से सम्मानित होने के बाद उन्होंने इस बात के प्रयास भी प्रारंभ कर दिए थे कि बांग्लादेश की सत्ता का स्वाद उन्हें चखने को मिले.
2007 में उन्होंने नागोरिक शोक्ति नाम का एक राजनीतिक संगठन शुरू किया था जिसका असल मकसद शेख हसीना और खालिदा जिया की तरह ही खुद को एक राजनीतिक शख्सियत के तौर पर पेश करना था. लेकिन वे ज्यादा दिन राजनीति में टिक नहीं पाए! लेकिन राजनीति उनकी किस्मत में थी इसलिए सत्ता उनके हाथ आ गई!
उन्होंने हालांकि घोषणा कर रखी है कि अगले साल जून तक वे चुनाव करा लेंगे लेकिन लोगों को अब भी भरोसा नहीं है. जिस तरह से ढाका विश्वविद्यालय के चुनाव में गंभीर अनियमितताएं हुईं और जमात-ए-इस्लामी की छात्र शाखा को जीत मिली है, उससे यह आशंका और मजबूत हो गई है कि बांग्लादेश कट्टता की अंधी गली में घुसता चला जाएगा.
मो. यूनुस पर अमेरिका की कृपा तो बनी हुई है ही, उन्होंने चीन की लंगोट पकड़ रखी है और उस पाकिस्तान की गोद में भी जा बैठे हैं जिस पाकिस्तान की सेना ने लाखों बांग्लादेशी महिलाओं के साथ रेप और नरसंहार किया था. मगर सत्ता अपने पास बनाए रखने के लिए पगलाए मो. यूनुस को यह सब याद कहां?
इसलिए यही कहना लाजमी होगा कि नेपाल और बांग्लादेश में बहुत फर्क है. नेपाल की सुशीला लोकतंत्र की जड़ें मजबूत करने वाली हैं जबकि बांग्लादेश के मो. यूनुस लोकतंत्र की जड़ों में तेजाब डालने वाले तानाशाही प्रवृत्ति के राजनेता हैं. सुशीला ईमानदारी का प्रतीक हैं तो यूनुस भ्रष्टाचार की बड़ी मिसाल! इसलिए तुलना मत कीजिए!