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ब्लॉग: संयुक्त राष्ट्र के बारे में भारत की चिंता जायज

By राजेश बादल | Published: March 12, 2024 11:30 AM

ब्रिटेन ने भारत से सहमति जताई और स्वीकार किया कि वीटो पॉवर ही सुधार के रास्ते में असली बाधा है। एक बार फिर संयुक्त राष्ट्र के कामकाज और उसके स्वरूप में बदलाव पर भारत ने जोर दिया है। पहली बार उसने गंभीर चेतावनी भी दी है।

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ठळक मुद्देएक बार फिर संयुक्त राष्ट्र के कामकाज और उसके स्वरूप में बदलाव पर भारत ने जोर दियापहली बार उसने गंभीर चेतावनी भी दी हैइससे पहले उसने अनेक अवसरों पर शिखर संस्था में बदलाव किया है

एक बार फिर संयुक्त राष्ट्र के कामकाज और उसके स्वरूप में बदलाव पर भारत ने जोर दिया है। पहली बार उसने गंभीर चेतावनी भी दी है। इससे पहले उसने अनेक अवसरों पर शिखर संस्था में बदलाव और उसके मौजूदा रवैये पर समूचे का ध्यान खींचा है। लेकिन, विकसित सदस्य देशों ने कभी उसकी बात पर गौर नहीं किया। इस बार हिंदुस्तान के सुर बेहद अलग अंदाज में निकले।

संयुक्त राष्ट्र में स्थायी प्रतिनिधि रुचिरा कम्बोज ने साफ और स्पष्ट शब्दों में कहा कि अब यदि संयुक्त राष्ट्र में सुधार नहीं किए गए तो यह संस्था गुमनामी में खो जाएगी। संगठन खतरे में पड़ जाएगा और विश्व के विकासशील देश वैकल्पिक राह चुनने के लिए आजाद होंगे। यह स्थिति अच्छी नहीं है और संकेत करती है कि जिस उद्देश्य से इस वैश्विक संस्थान का गठन किया गया था, वह पूरा नहीं हो रहा है। छोटे-बड़े मुल्कों में गहन असंतोष है। 

अभी इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाले दिनों में यह आर्गेनाइजेशन चंद देशों की जेब में जाकर बैठ जाएगा। उन्होंने आगाह किया कि अब भारत की उपेक्षा नहीं की जा सकती। भारत की इस चेतावनी को कुछ बड़े राष्ट्रों का समर्थन तो मिला है, मगर कहा नहीं जा सकता कि यह समर्थन कोई क्रांतिकारी परिवर्तन लाएगा। मसलन ब्रिटेन ने भारत से सहमति जताई और स्वीकार किया कि वीटो पॉवर ही सुधार के रास्ते में असली बाधा है।

इसके अलावा समूह-चार के ब्राजील, जापान और जर्मनी ने भी भारत की बात से सहमति प्रकट की। ये देश पिछले साल भी भारत के विदेश मंत्री की राय से भी सहमत थे कि यदि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में वांछित सुधार नहीं हुए तो सदस्य देश बाहरी समाधान खोजने लगेंगे। यह बूढ़ों के क्लब जैसा हो गया है। पांच देश नहीं चाहते कि उन पर कोई उंगली उठाए अथवा उनके मामलों में टांग अड़ाए।

समझना होगा कि भारत ही संयुक्त राष्ट्र के ढांचे में परिवर्तन पर इतना जोर क्यों दे रहा है. तमाम राष्ट्रों के भीतर चिंता का यह आकार छोटा क्यों है? आपको याद होगा कि सन 2000 में संयुक्त राष्ट्र के पचपन साल पूरे होने पर वैश्विक समारोह हुआ था। इसमें कमोबेश सारी दुनिया के राजनेताओं ने शिरकत की थी। इस जलसे में एक संकल्प लिया गया था कि संयुक्त राष्ट्र संघ की कार्यशैली में व्यापक सुधारों की आवश्यकता है। पर, कुछ नहीं हुआ। सारा संकल्प ठंडे बस्ते में बंद होकर रह गया।

अब छह महीने बाद सितंबर में इस संस्था के अस्सी साल पूरे हो जाएंगे तो एक बार फिर भव्य समारोह की तैयारी चल रही है। इसमें भी इन सुधारों का मामला उठेगा। भारत का कहना है कि संसार की सत्रह फीसदी आबादी भारत में रहती है। सुरक्षा परिषद के चार सदस्य रूस, फ्रांस, ब्रिटेन और अमेरिका भारत की स्थायी सदस्यता के पक्षधर हैं। सिर्फ चीन भारत के खिलाफ है। वह अपने निजी हितों के चलते इतने बड़े मुल्क की उपेक्षा कर रहा है। अब चीन की दादागीरी से अन्य चार सदस्य भी परेशान हो चुके हैं।

वैसे भारत के पक्ष में एक बात और भी है। संयुक्त राष्ट्र में उसकी आवाज लगातार मजबूत होती गई है। वैसे तो संयुक्त राष्ट्र से संबद्ध सभी राष्ट्रों के बीच भारत की साख हमेशा बेहतर रही है। जब-जब भी अस्थायी सदस्यता के लिए मतदान हुआ, भारत को अभूतपूर्व समर्थन मिला है। कुछ उदाहरण पर्याप्त होंगे। सन 1950 में कुल 58 वोटों में से भारत को 56 वोट मिले थे। इसके बाद 1967 में भारत को कुल 119 में से 82 मत हासिल हुए।

हालांकि, 1964 में पंडित जवाहरलाल नेहरू नहीं रहे थे। यह अपेक्षाकृत कमजोर स्थिति थी। लेकिन उसके बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रियता के शिखर पर थीं। उन्होंने दुनिया के नक़्शे में बांग्लादेश नाम के नए देश को जन्म दिया था तो उसके अगले साल यानी 1972 में 116 में से 107 देश भारत के साथ खड़े थे। यानी भारत अपनी प्रतिष्ठा के मान से फिर विश्व बिरादरी में शिखर पर था। अगले पांच साल बाद भी ऐसी स्थिति बनी रही।

जब 1977 में मतदान हुआ तो कुल 138 देशों में से 132 मुल्कों का वोट भारत को मिला था। इंदिरा गांधी के नेतृत्व में गुट निरपेक्ष देश एकजुट थे इसलिए उसका लाभ भारत को मिलता रहा। उसके बाद के दस बरस भी हिंदुस्तान की लोकप्रियता के नजरिए से सुनहरे थे। इंदिरा गांधी और उनके बाद राजीव गांधी भारतीय राजनीति के क्षितिज पर उभरे। उस साल भारत को 155 में से 142 राष्ट्रों का साथ मिला।

प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में सन् 2011 -12 में डॉ. मनमोहन सिंह के जमाने में ग्राफ सबसे ऊपर रहा। कुल 191 में से 187 देशों का साथ हिंदुस्तान को मिला। पिछला चुनाव 2021-22 में हुआ था। उस समय तो नरेंद्र मोदी ही प्रधानमंत्री थे। उस दरम्यान 192 में से 184 राष्ट्रों ने भारत के पक्ष में मतदान किया था।

इस तरह आठ बार सुरक्षा परिषद का अस्थायी सदस्य बनाने का अवसर हिंदुस्तान को मिला है। भारत की शानदार छबि के बाद भी चीन के रुख में कोई बदलाव नहीं हुआ है। इसे देखते हुए भारत का आक्रोश और सवाल जायज है कि संसार की इस सबसे बड़ी पंचायत पर काबिज देश आखिर कब तक हिंदुस्तान की उपेक्षा करते रहेंगे? उसके बड़े संवेदनशील निर्णयों में भारत की भागीदारी कब और कैसे होगी?

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