चार दिन आमने-सामने डटे रहने के बाद पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच वार्ता नाकाम हो गई. पाक प्रतिनिधिमंडल बातचीत की मेज से पलायन कर गया. मेजबान तुर्की पाकिस्तान का रवैया देखकर हैरान था. पहले दोहा और फिर इस्तांबुल में दोनों मुल्कों के बीच इस बातचीत से तुर्की और कतर जैसे पाकिस्तान के मित्र देशों को झटका लगा है. लंबे समय से वे दोनों राष्ट्रों के बीच मध्यस्थता का प्रयास कर रहे थे. परदे के पीछे पाकिस्तान तुर्की और कतर से कह रहा था कि अब यदि शांति कायम नहीं हुई तो क्षेत्रीय शांति के लिए खतरा उपस्थित हो जाएगा.
एक तरह से पाकिस्तान की यह गीदड़ भभकी थी क्योंकि वह जानता था कि अफगानी हुकूमत में बैठे तालिबानियों से जंग में नहीं निपट सकता. उसका डर यह भी था कि यदि तालिबानियों से जंग शुरू हो गई तो उसे भारत से लगती 3323 किलोमीटर लंबी सीमा पर अपनी फौज की तैनाती कम करनी पड़ेगी. यह जोखिम वह नहीं उठाना चाहता था.
हिंदुस्तान से जंग का भूत उसको इस कदर सताता है कि वह अपने को इस सोच से अलग करके पाकिस्तान की भलाई के बारे में सोच ही नहीं पाता. फिर भी वह अफगानिस्तान को जब तब युद्ध की धमकी देता रहता है और पठानी देश में कथित सर्जिकल स्ट्राइक करता रहता है. लेकिन अब तालिबान भी उसके रवैये से तंग आ चुके हैं. वे भी पाकिस्तान से अब आर-पार की लड़ाई लड़ लेना चाहते हैं.
इस्तांबुल की चर्चा छोड़ कर भागे पाकिस्तान के सूचना-प्रसारण मंत्री अताउल्लाह तरार ने माना कि वार्ता विफल रही है. सूचना मंत्री के मुताबिक पाकिस्तान अरसे से अपने देश में सक्रिय पाकिस्तानी तालिबान उग्रवादियों के खिलाफ काबुल से सहयोग मांग रहा था. उनका दावा है कि अफगान तालिबान लगातार आतंकवादियों को समर्थन दे रहा है और उन पर काबू पाने की कोशिशें असफल रही हैं.
अब तालिबान अफगानिस्तान के लोगों को अनावश्यक जंग में घसीटना चाहता है. पाकिस्तान का तालिबान पर आरोप है कि वह पाकिस्तान में हमला करने वाले टीटीपी और बीएलए जैसे चरमपंथी समूहों को समर्थन दे रहा है. चार साल तक जन-धन का इतना नुकसान होने के बाद पाकिस्तान का संयम जवाब दे रहा है. अब उसके सामने सैनिक कार्रवाई के सिवा कोई चारा नहीं बचा है.
दरअसल दोनों पक्षों के बीच अविश्वास की खाई इतनी गहरी है कि उसका पाटना मुश्किल है. या तो खाई पूरी तरह भरी जाए या फिर निरंतर गहरी और चौड़ी होती रहे. इसमें पहली बात पूरी होनी मुश्किल है क्योंकि उसकी जड़ों में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है. इसीलिए जब चर्चा के दौरान तालिबानियों के प्रतिनिधिमंडल ने पाकिस्तान के प्रतिनिधियों से अफगानिस्तान पर हवाई हमले बंद करने और अमेरिकी ड्रोन उड़ानों को रोकने की बात कही तो पाकिस्तान ने इसे फौरन नामंजूर कर दिया.
इसी तरह जब पाकिस्तान के नुमाइंदों ने अफगानिस्तान सरकार से टीटीपी को आतंकवादी समूह घोषित करने और उसके खिलाफ कार्रवाई की बात कही तो उसे अफगानिस्तान ने सिरे से खारिज कर दिया. सूत्रों की मानें तो तालिबान ने साफ-साफ कहा कि उनका और टीटीपी का वैचारिक आधार एक ही है. उसे वे कैसे रोक सकते हैं?
यहां पाकिस्तान की विवशता सामने आती है. यह सार्वजनिक है कि अमेरिका बगराम एयरबेस पर फिर अपना सैनिक अड्डा स्थापित करना चाहता है. राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने बीते दिनों अफगानिस्तान को स्पष्ट चेतावनी दी थी कि या तो वह बगराम एयरबेस अमेरिका को सौंप दे अन्यथा अंजाम भुगतने को तैयार रहे.
ट्रम्प ने माना था कि बगराम से अपना कब्जा हटाना अमेरिका की तत्कालीन जो बाइडेन सरकार की बड़ी गलती थी. चूंकि बगराम की भौगोलिक स्थिति चीन के निकट है, इसलिए बगराम में अमेरिकी फौजों का रहना चीन के लिए संकट का सबब बन सकता था. लेकिन अब फिर अमेरिका इसे हासिल करेगा. तालिबान ने इसका सख्त उत्तर दिया था.
उन्होंने कहा कि हम अमेरिका को अपनी जमीन का एक टुकड़ा भी नहीं देंगे. हम अमेरिका से बीस साल तक जंग लड़ने के लिए तैयार हैं. अमेरिका अफगानों को नहीं जानता. उधर, अमेरिकी रक्षा अधिकारियों ने ट्रम्प से कहा है कि यदि आप बगराम एयरबेस पर अधिकार करना चाहते हैं तो दस हजार सैनिकों की आवश्यकता होगी और नए सिरे से फौजी संसाधन लगेंगे.
इस नजरिये से अमेरिका की माली हालत खस्ता है. यही कारण है कि वह पाकिस्तान की पीठ पर हाथ रख कर उसे अफगानियों से लगातार लड़ाना चाहता है. पाकिस्तान को इस समय अमेरिका का संरक्षण बेहद जरूरी है, इसलिए यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि तुर्की और कतर जैसे मित्र देशों को पाकिस्तान नाराज नहीं करना चाहता था.
वह तालिबानी हुकूमत से कोई समझौता करना ही नहीं चाहता था. वह जानता है कि भविष्य में जब अमेरिका अफगानिस्तान पर आक्रमण करेगा तो उसे हमले को समर्थन देना ही पड़ेगा. ऐसे में तालिबान से किसी समझौते का कोई मतलब ही नहीं है. असल में पाकिस्तान को अफगानिस्तान और हिंदुस्तान की निकटता भी नहीं सुहा रही है.
उसके लिए यह तिलिस्मी सवाल है कि जिस तालिबान को उसने पैदा किया था, वह अब भारत के साथ दोस्ती का हाथ कैसे बढ़ा सकता है. बीते दिनों अफगानी विदेश मंत्री अमीर खान मुत्तकी भारत आए थे. इसके बाद भारत ने अफगानिस्तान में अपना दूतावास खोलने का निर्णय लिया था. पाकिस्तान के लिए यह कूटनीतिक झटका था.
इस कारण उसने अफगानी विदेश मंत्री की इसी यात्रा के दौरान ही अफगानिस्तान पर हमला किया था. भारत के लिए वास्तव में अपनी नीति में बदलाव की जरूरत भी थी. जब से बांग्लादेश ने पाकिस्तान के साथ पींगें बढ़ाकर भारत के लिए पूर्वी सीमा पर परेशानी खड़ी की है तो पाकिस्तान की पश्चिमी सीमा पर भारत ने तालिबान से करीबी रिश्ते रखकर पाकिस्तान को जैसे को तैसा उत्तर दिया है.