COP29: आजकल कश्यप (कैस्पियन) सागर के पश्चिमी तट पर स्थित अजरबैजान की राजधानी बाकू में जीवाश्म ईंधन के उत्सर्जन पर अंकुश के लिए काॅप-29 शिखर सम्मेलन चल रहा है. इस देश में यह जलवायु सम्मेलन इसलिए आयोजित है, क्योंकि यहां तापमान के लगातार बढ़ने और हिमखंडों के पिघलने के चलते तटीय बस्तियां डूबने की आशंकाएं जताई जा रही हैं. यह आशंका इसलिए और बढ़ गई, क्योंकि डोनाल्ड ट्रम्प अमेरिका के राष्ट्रपति चुन लिए गए हैं. ट्रम्प जीवाश्म ईंधन के प्रबल पक्षधर रहे हैं इसलिए वे पर्यावरण संकट को कोई खतरा न मानते हुए इसे पर्यावरणविदों द्वारा खड़ा किया गया एक हौवा भर मानते हैं. ट्रम्प और उनके समर्थक नेताओं का समूह अधिकतम जीवाश्म ईंधन पैदा करने की वकालत करते रहे हैं.
इसलिए बाकू सम्मेलन में निराशा के चलते दुनिया के अस्तित्व पर मंडराते बहुआयामी खतरों से निपटने की उम्मीद कम ही है. जलवायु सम्मेलन काॅप-29 में कोयले, तेल और गैस अर्थात जीवाश्म ईंधन का उपयोग धीरे-धीरे खत्म करने की पैरवी पर्यावरण विज्ञानी कर रहे हैं, जिससे बढ़ते वैश्विक तापमान को नियंत्रित किया जा सके.
अनेक देशों ने 2030 तक दुनिया में नवीकरणीय ऊर्जा का इस्तेमाल बढ़ाकर तीन गुना करने के सुझाव दिए हैं. लेकिन हकीकत यह है कि यूक्रेन और रूस तथा इजराइल और हमास के बीच चलते भीषण युद्ध के कारण कोयला जैसे जीवाश्म ईंधन से ऊर्जा उत्पादन का प्रयोग बढ़ा है और बिजली उत्पादन के जिन कोयला संयंत्रों को बंद कर दिया गया था. उनका उपयोग फिर से शुरू हो गया है.
2018 ऐसा वर्ष था, जब भारत और चीन में कोयले से बिजली उत्पादन में कमी दर्ज की गई थी. नतीजतन भारत पहली बार इस वर्ष के ‘जलवायु परिवर्तन प्रदर्शन सूचकांक’ में शीर्ष दस देशों में शामिल हुआ था. वहीं अमेरिका सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले देशों में शामिल हुआ था. स्पेन की राजधानी मैड्रिड में ‘काॅप 25’ जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में यह रिपोर्ट जारी की गई थी.
रिपोर्ट के अनुसार 57 उच्च कार्बन उत्सर्जन वाले देशों में से 31 में उत्सर्जन का स्तर कम होने के रुझान इस रिपोर्ट में दर्ज थे. इन्हीं देशों से 90 प्रतिशत कार्बन का उत्सर्जन होता रहा है. इस सूचकांक में चीन में भी मामूली सुधार हुआ था. नतीजतन वह तीसवें स्थान पर रहा था. जी-20 देशों में ब्रिटेन सातवें और भारत नौवें स्थान पर रहे थे.
अमेरिका खराब प्रदर्शन करने वाले देशों में इसलिए आ गया था, क्योंकि उसने जलवायु परिवर्तन की खिल्ली उड़ाते हुए इस समझौते से बाहर आने का निर्णय ले लिया था. उस समय अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प थे. हकीकत यह है कि अमेरिका ने वास्तव में कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण के कोई प्रयास ही नहीं किए. अब फिर से दो युद्धों के चलते कोयले से बिजली उत्पादन पर निर्भरता बढ़ती दिखाई दे रही है.