चीन की चालबाजी में अब नहीं फंसेंगे?, विदेश मंत्री जयशंकर की यात्रा को लेकर बड़े सवाल
By विकास मिश्रा | Updated: July 22, 2025 05:13 IST2025-07-22T05:13:43+5:302025-07-22T05:13:43+5:30
खासकर भारत के संदर्भ में तो उसका रवैया हमेशा ही चालबाजियों और दुश्मनी से भरा रहा है जबकि भारत ने हमेशा ही उसके प्रति दोस्ताना रवैया अपनाया है.

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विदेश मंत्री एस. जयशंकर की चीन यात्रा को लेकर बड़े सवाल उठ रहे हैं. सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या दोनों देशों के बीच बर्फ पिघल रही है? यदि हां तो रिश्तों पर जमी बर्फ जल्दी पिघलाने के लिए कौन ज्यादा तत्पर है? चीन या भारत? एक सवाल और है कि क्या इसके पीछे कोई तीसरा दिमाग भी है? यदि हां तो क्या वो दिमाग रूसी राष्ट्रपति पुतिन का है? या फिर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की हरकतों से पैदा हुई स्थितियों ने भारत और चीन को पास आने के लिए मजबूर किया है? इन सवालों के सही जवाब तो वक्त ही देगा क्योंकि चीन ऐसा देश है जो कब कौन सी कलाबाजी दिखा दे, उसकी हरकतों का आकलन बड़ा मुश्किल है. खासकर भारत के संदर्भ में तो उसका रवैया हमेशा ही चालबाजियों और दुश्मनी से भरा रहा है जबकि भारत ने हमेशा ही उसके प्रति दोस्ताना रवैया अपनाया है.
1947 में भारत आजाद हुआ और 1949 में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना बना. शुरुआती दौर में दोस्ती के लिए भारत ने सबकुछ किया. नवंबर 1950 में संयुक्त राष्ट्र ने कोरिया युद्ध को लेकर एक प्रस्ताव में पेइचिंग को आक्रमणकारी घोषित किया तो भारत ने विरोध किया. दिसंबर 1950 में भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र संघ में चीन की सदस्यता की वकालत की.
1954 में दोनों देशों के बीच शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का समझौता हुआ जिसे हम पंचशील समझौता के नाम से जानते हैं. 1955 में भारत ने ताइवान पर चीन के दावे को भी स्वीकार कर लिया. इसके पहले 1950 में ही तिब्बत को अपने कब्जे में लेने की प्रक्रिया चीन शुरू कर चुका था. अक्तूबर, 1950 में तिब्बत का चामदो शहर उसके कब्जे में आ चुका था लेकिन भारत चुप रहा ताकि दोस्ती के रिश्ते में दरार न आए.
चीन का व्यवहार इसके ठीक विपरीत था. दोस्ती में उसकी कोई रुचि नहीं थी. 1958 में भारत के असम राज्य और नेफा (नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी) जिसे हम अब अरुणाचल प्रदेश के नाम से जानते हैं, को चीन ने अपने नक्शे में दिखाने की चालबाजी की. स्वाभाविक रूप से भारत ने आपत्ति ली.
मगर केवल चार महीने बाद यानी जनवरी 1959 में चीन ने औपचारिक रूप से भारतीय क्षेत्र नेफा और लद्दाख की 40 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन पर दावा जता दिया. भारत ने फिर विरोध किया लेकिन चीन की मोटी चमड़ी पर कोई असर नहीं हुआ. चीनी सैनिकों ने लद्दाख में भारतीय सैनिकों पर गोलियां चलाईं. छिटपुट हमले की कुछ और घटनाएं हुईं.
भारत फिर भी दोस्ती का राग अलापता रहा. उसी साल तिब्बत में चीन ने क्रूरता की सारी हदें पार कीं और तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा को गिरफ्तार करने का षड्यंत्र रचा जिससे बच निकलने में दलाई लामा कामयाब रहे. वे भारत पहुंचे और भारत ने उन्हें शरण दी. उसके बाद की कहानी सबको पता है कि चीन ने 1962 में भारत पर हमला कर दिया.
उसके बाद गलवान की कहानी तो सबको पता है कि किस तरह से चीन ने चुपके से वार किया! इतिहास की ये लंबी दास्तान मैं आपको इसलिए बता रहा हूं ताकि चीन की हरकतों की याद ताजा हो जाए क्योंकि अभी यह बात उठ रही है कि क्या भारत और चीन एक-दूसरे से फासला कम कर रहे हैं? नरेंद्र मोदी ने सत्ता संभालने के बाद यह कोशिश की थी कि चीन के साथ रिश्ते सुधरें.
2019 में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत भी आए थे और महाबलिपुरम में दोस्ताना बातचीत भी हुई थी. मगर अगले ही साल भारतीय सैनिकों पर चीनी सैनिकों ने कांटे लगे डंडों से हमला कर दिया जबकि दोनों देशों के बीच समझौता था कि सीमा पर एकदम पास किसी भी सैनिक के पास हथियार नहीं रहेगा. भारत ने समझौते का पालन किया था, चीन ने नहीं किया! यही उसकी तासीर है.
गलवान हमले के बाद भारत ने कड़ा रुख अख्तियार किया था. मगर पिछले साल अक्तूबर में रूस में आयोजित ब्रिक्स सम्मेलन में नरेंद्र मोदी और शी जिनपिंग के बीच द्विपक्षीय बैठक हुई. इसके बाद पिछले महीने जून में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह तथा भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक में भाग लेने के लिए चीन गए थे.
अब भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर चीन पहुंचे हैं. उनका चीन दौरा ऐसे समय हुआ है जब इस बात के प्रमाण सामने हैं कि भारत के ऑपरेशन सिंदूर के दौरान चीन ने पाकिस्तान की खूब मदद की है. जमीन से लेकर आकाश तक उसका साथ दिया है. जयशंकर ने अपनी यात्रा के दौरान चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और विदेश मंत्री वांग यी समेत शीर्ष अधिकारियों से मुलाकातें कीं.
अंदर की बात तो स्पष्ट रूप से कभी सामने नहीं आती, जब तक कि कोई एक पक्ष न चाहे, लेकिन यह तो स्पष्ट है कि यात्रा का उद्देश्य चीन से इतना कामचलाऊ रिश्ता रखना है कि वह खुलकर भारत के खिलाफ न जाए! दूसरी बात यह है कि भारत शायद अमेरिका को यह संदेश देना चाहता है कि वह भारतीय हितों के साथ खिलवाड़ न करे. भारत किसी भी सूरत मे अमेरिका की गोद में नहीं खेलेगा!
वैसे विश्लेषण के नजरिये से देखा जाए तो चीन और रूस इस समय बिल्कुल साथ-साथ हैं. इसमें कोई संदेह नहीं कि पुतिन की सहायता चीन कर रहा है. चीन को भी अमेरिका से भिड़े रहने के लिए रूस का साथ चाहिए. इसमें यदि भारत भी शामिल हो जाए तो अमेरिका के लिए संकट बढ़ सकता है. पुतिन यही चाहते भी हैं. मगर भारत को अपना हित देखना है.
इसीलिए भारत बहुध्रुवीय दुनिया की बात करता है. हम किसी गुट में नहीं रहेंगे लेकिन सबके साथ रहेंगे. ऐसे रिश्तों को साधना जरा मुश्किल होता है लेकिन यही ठीक भी है. लेकिन हमें ध्यान रखना होगा कि हम इतिहास की गलतियां न दोहराएं और चीनी छल का शिकार न हो जाएं! चालबाजियां चीन के खून में हैं!