ब्लॉग: पाकिस्तान में छाए संकट के बीच बिलावल भुट्टो जरदारी की भारत यात्रा के क्या हैं मायने?

By रहीस सिंह | Published: May 3, 2023 10:43 AM2023-05-03T10:43:38+5:302023-05-03T10:45:43+5:30

Bilawal Bhutto Zardari's visit to India amidst the economic crisis prevailing in Pakistan? | ब्लॉग: पाकिस्तान में छाए संकट के बीच बिलावल भुट्टो जरदारी की भारत यात्रा के क्या हैं मायने?

ब्लॉग: पाकिस्तान में छाए संकट के बीच बिलावल भुट्टो जरदारी की भारत यात्रा के क्या हैं मायने?

भारत-पाकिस्तान संबंध इतिहास के सबसे खराब दौर से गुजर रहे हैं, भले ही हम इस निष्कर्ष पर न पहुंच पाएं लेकिन यह सही है कि पाकिस्तान इतिहास के सबसे खराब दौर से गुजर रहा है. यह आवाज तो अब पाकिस्तान के अंदर से भी आ रही है और आवाज पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री शाहिद खाकान अब्बासी की है. उन्होंने अभी कुछ दिन पहले ही कहा था कि पाकिस्तान इस समय जैसी गंभीर आर्थिक और राजनीतिक स्थिति से गुजर रहा है, वैसी पहले कभी नहीं देखी. 

ऐसे समय में 4-5 मई को गोवा में होने वाली शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की विदेश मंत्रियों की बैठक में हिस्सा लेने के लिए पाकिस्तान के विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो जरदारी की भारत यात्रा को किस नजरिये से देखा जाना चाहिए? द्विपक्षीय रिश्तों की दृष्टि से इस यात्रा के क्या कोई कूटनीतिक मायने भी हो सकते हैं?

दरअसल भारत इस समय शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन का अध्यक्ष है. इस दृष्टि से भारत की ओर से सभी एससीओ सदस्यों को निमंत्रण भेजा गया. पाकिस्तान भी उन्हीं में से एक है. यानी इसे द्विपक्षीय कूटनीतिक पहल का हिस्सा नहीं कहा जा सकता. फिर भी यदि पाकिस्तानी कूटनीतिकार और थिंक टैंक इस पर फोकस कर रहे हैं तो इसे किस नजरिये से देखा जाए?

दरअसल पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने विदेश मंत्रियों की गोवा एससीओ बैठक में बिलावल भुट्टो की संभावित उपस्थिति को एससीओ चार्टर और उसके तरीकों में पाकिस्तान की निरंतर प्रतिबद्धता व विदेश नीति की प्राथमिकता के तौर पर पेश किया है. 

इसका तात्पर्य तो यही हुआ कि इस यात्रा का उद्देश्य बाइलेटरल डिप्लोमेसी नहीं है बल्कि बहुपक्षीय संवाद (मल्टीलेटरल डायलॉग) है. फिर तो यह बात भी मायने नहीं रखती कि पाकिस्तान के किसी नेता की करीब नौ वर्ष बाद भारत यात्रा संपन्न हो रही है. 

इससे पूर्व पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ 2014 में भारत आकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘ओथ डिप्लोमेसी’ का हिस्सा बने थे. इसी समय भारत ने नेबरहुड फर्स्ट की विदेश नीति पर चलने का निर्णय लिया था और प्रधानमंत्री ने इसे पुख्ता करने के लिए ‘हार्ट-टू-हार्ट डिप्लोमेसी’ का उदाहरण भी प्रस्तुत किया था. लेकिन पाकिस्तान अपने परंपरागत मनोविज्ञान को नहीं बदल पाया. इसकी परिणति 2019 में पुलवामा हमले के रूप में दिखी, जिसका परिणाम था भारतीय सेना द्वारा पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक. 

कहने का तात्पर्य यह कि भारत के अच्छे प्रयासों के बावजूद पाकिस्तान उसी मानसिक धरातल पर खड़ा दिखा जहां वह 1965, 1971 या 1999 के समय खड़ा था या फिर प्रॉक्सी वॉर की उस सतह पर जिसकी शुरुआत उसने 1990 के दशक से की थी.

पाकिस्तान के विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो को पाकिस्तान की इस पारंपरिक मनोदशा से बहुत अलग करके नहीं देखा जा सकता. लेकिन पाकिस्तान आज जिस दौर से गुजर रहा है, उसमें जरूरी है कि भारत के साथ उसके कूटनीतिक संबंध बेहतर हों. 

मोटे तौर पर तो वहां आर्थिक राजनीतिक संकट को ही देखा जा रहा है. लेकिन सच यह है कि पाकिस्तान इस समय संवैधानिक संकट से भी गुजर रहा है, विशेषकर पंजाब और पख्तूनख्वा पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के पश्चात सुप्रीम कोर्ट और इस्लामाबाद की सरकार के बीच टकराव के बाद. ऐसी स्थितियां बीते समय में पाकिस्तान की सेना के लिए नए अवसर उपलब्ध कराती रही हैं. 

ऐसे अवसर पाकिस्तानी सेना को मार्शल लॉ के लिए स्पेस देते रहे हैं. यही वजह है कि पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री शाहिद अब्बासी जैसे नेता सेना के इतिहास दोहराने की शंका जताते हुए दिख रहे हैं.

कुछ पाकिस्तानी विश्लेषक बिलावल भुट्टो की इस यात्रा को ‘सामरिक’ और ‘आगे की ओर उठाया गया कदम’ बता रहे हैं. लेकिन तकनीकी दृष्टि से ऐसा नहीं है. कुछ इस बात को अधिक तरजीह दे रहे हैं कि करीब 9 साल बाद पाकिस्तान का कोई नेता भारत आ रहा है. अतः बिलावल भुट्टो की भारत में मौजूदगी बातचीत के दरवाजों को फिर से खोल सकती है. लेकिन ऐसी संभावनाओं पर चलकर निष्कर्ष निकालना अतार्किक सा लगता है.

विशेषकर तब जब पाकिस्तान अभी भी उसी मनोदशा में हो और आतंकवाद को अभी भी पोषण दे रहा हो. हां पाकिस्तान जिन संकटों से घिरा हुआ है या जिन चुनौतियों का सामना कर रहा है उनके चलते यह हो सकता है कि वह भारत की तरफ हाथ बढ़ाना चाह रहा हो. 

इसके लिए वह शंघाई कोऑपरेशन जैसे मंच को गेटवे ऑफ डिप्लोमेसी के तौर पर देख रहा हो. लेकिन ऐसा है नहीं. वह तो तभी संभव हो सकता है जब भारत-पाकिस्तान द्विपक्षीय वार्ता के लिए डिप्लोमेटिक टेबल पर एक साथ बैठें. फिलहाल इसकी संभावना अभी कम है.

फिलहाल पाकिस्तान में विदेशी मुद्रा भंडार की स्थिति खतरनाक है, अर्थव्यवस्था की हालत बेहद बुरी है, तेल, खाने के सामान आदि के दाम तेजी से बढ़े हैं और पाकिस्तानी रुपया डॉलर के मुकाबले लगातार कमजोर हुआ है. ये चीजें यह बताती हैं कि चीन भी अपने ‘ऑल वेदर’ मित्र को संकटों से उबारने में नाकाम रहा है. उसके कुछ अन्य समधर्मी मित्र भी उसे घुटने टेकने से नहीं बचा पाए हैं. इसलिए भारत अब उसकी जरूरत बन चुका है. 

ऐसे में उसका भारत की ओर देखना स्वाभाविक है भले ही वह आंख मिलाकर न सही पर आंख चुराकर देखने की कोशिश कर रहा हो, लेकिन क्या भारत भी उसकी तरफ देखेगा? या क्या उसे देखना चाहिए? फिलहाल तब तक तो नहीं जब तक पाकिस्तान अपने उस मूल चरित्र को बदलने के लिए तैयार न हो. ध्यान रहे कि पाकिस्तान भारत को दुश्मन के रूप देखता है, एक मित्र या पड़ोसी के रूप में नहीं.

फिर तो पाकिस्तानी विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो की भारत यात्रा को द्विपक्षीय कूटनीति के संदर्भ में देखना संभवतः ‘प्रिमैच्योर बिहैवियर’ ही माना जाएगा, परिपक्वता का प्रमाण नहीं.

Web Title: Bilawal Bhutto Zardari's visit to India amidst the economic crisis prevailing in Pakistan?

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