सुनील सोनीवरिष्ठ समाचार संपादक लोकमत समाचार
कलावीथिका में ‘कलाकृति’ के तौर पर दर्ज केले को खा लिया जाना कोई अचंभित करनेवाली घटना तो नहीं है, पर जब फ्रांस के मेत्ज शहर में तिबारा घटी, तो कलाजगत परेशान हो उठा. यह इतालवी कलाकार मौरोजियो कैटेलान की मशहूर कृति ‘कॉमेडियन’ थी. इसमें ताजा केले को रुपहले डक्ट-टेप से चिपकाया गया था. कलाकृति की कीमत 52 करोड़ रुपए थी/है. इस वाकये ने सवाल उठाया कि कला आखिर क्या है? क्या जिसे कोई कलाकार कला कहकर पेश कर दे या वह जो लौकिक सौंदर्य की अलौकिक अभिव्यक्ति है?
यूं कैटेलान समाज की विडंबना पर कटाक्ष करते रहे हैं, पर कला के बाजार में उनकी कीमत काफी अधिक है. उनके बरअक्स ब्रिटेन के गुमनाम स्ट्रीट आर्टिस्ट बैंक्सी हैं, जो विद्रूपता को इतना धारदार बनाते हैं, जो सत्ता का पर्दाफाश कर दे. लेकिन वे कलाकृति की नीलामी में शामिल नहीं होते. इसके बावजूद कि महंगे नीलामघर अमीर संभ्रांतों के कलासंग्रह में कैद करने के लिए उन्हें खींचना चाहते हैं. वे कला की संरचना, उद्देश्य को चुनौती देते हैं और बेचैनी रचते हैं. वे कला की सार्थकता पर सवाल भी उठाते हैं.
बैंक्सी ने 2018 में प्रसिद्ध कलाकृति ‘गर्ल विथ बलून’ को नीलामी के तुरंत बाद नष्ट कर दिया था. यह कला के बाजार की मूर्खता और अनियंत्रित लोभ पर तीखा तंज था. यह बात अलग कि नष्ट होने के बाद कलाकृति के और अधिक दाम लगे.मार्सेल दुशां ने 1917 में यूरिनल को ‘फाउंटेन’ नाम से पेश किया और पिएरो मनजोनी ने 1961 में अपने मल को टिन के 90 डिब्बों में ‘आर्टिस्ट्स शिट’ नाम से सोने के भाव पर बेचा.
यह कला की पवित्रता और मूल्य को लेकर कटाक्ष था. मा योंगशेंग ने दीर्घा की दीवारों पर सिर्फ लाइटिंग और खाली कैनवास रखे. जॉन केज ने 4.33 मिनट का संगीत मौन रचा. बिना कोई वाद्य बजाए, सिर्फ दर्शकों की खांसी, कुर्सी की चर्रमर्र से संगीत सृजन. यह मानवीय ध्वनि चेतना को चुनौती थी. इन सब में जो साझा बात थी, वह यह कि कला सिर्फ वस्तु नहीं; विचार, व्यंग्य, विद्रोह, चुनौती भी है.
वह हमें बाजार, दाम, ज्ञान और ताकत के प्रभाव से परे सोचने पर मजबूर करती है. विडंबना ही है कि फिलहाल कला का सबसे ज्यादा इस्तेमाल वैचारिक व सांस्कृतिक प्रभुत्व के लिए हो रहा है. म्यूजियम, गैलरी, आलोचक, मीडिया तय करते हैं कि कौन-सी कला महत्वपूर्ण व मूल्यवान है. कला को यूं पेश किया जा रहा है कि वह सामाजिक संवाद, चेतना, परिवर्तन या सौंदर्यबोध नहीं गढ़ती, बल्कि अमीरों की दासी बनकर रह जाती है. कला संग्राहक और निवेशक, चाहे पुराने संभ्रांत परिवार हों, नवदौलतिये या क्रिप्टो-अमीर; सब कला में ‘निवेश’ करते हैं. इससे वे सामाजिक प्रतिष्ठा और वित्तीय लाभ कमाते हैं.
अबुधाबी में ‘लूव्र म्यूजियम’ को बनाने में अरबों डॉलर झोंके गए, ताकि यूएई, वैश्विक कला बाजार का ब्रांड बन जाए. मियामी का आर्ट बासल, कला के बजाय कुलीनों की आवाजाही का प्रदर्शन ज्यादा है. दुनिया के सारे अमीर महंगी कलाकृतियां खरीदकर ज्यूरिख, सिंगापुर, लक्जमबर्ग के फ्री-पोर्टों में छिपाते हैं. फ्री-पोर्टों में छिपी कला का मूल्य 100 अरब डॉलर (9 लाख करोड़ रुपए) से अधिक आंका गया. इससे इतर 2024 में दुनियाभर में कला बाजार का कुल मूल्य 68 अरब डॉलर यानी 6 लाख करोड़ रुपए था.
इनमें से 50 अरब डॉलर पेंटिंगों व ललित कला से, 15–20 अरब डॉलर नीलामघरों से, 35 अरब डॉलर निजी बिक्री से आए थे. इस बाजार में बिचौलिये कलाकार को देखते-परखते हैं, कलाकृति की कीमत लगाते हैं. कलावीथिकाएं अपने नेटवर्क से प्रचार करती हैं और ब्रांडिंग के लिए 40-60% तक कमीशन लेती हैं. यदि कलाकार अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क में शामिल हो जाए, तो दाम कई गुना बढ़ जाते हैं.
सोथबीज, क्रिस्टीज समेत कई नीलामघर कला को ऊंची कीमत पर बेचते हैं. यानी कौन-सी कला दिखेगी, किस कला को समर्थन मिलेगा, किसकी कीमत कितनी होगी, सब सत्ता से जुड़ा तंत्र तय करता है. कला-प्रतिरोध इसी वजह से आंदोलन बन गया है. बैंक्सी इसकी बानगी हैं.