सुनील सोनी
बैंक्सी की वह कलाकृति किसी के भी दिल के टुकड़े-टुकड़े कर देगी. चित्र में एक फिलिस्तीनी मां मदर मैरी के रूप में हैं, जो अपने नवजात को दूध पिलाने की कोशिश कर रही हैं... मां के वक्ष में गोली का छेद है, जिससे खून बहकर जम गया है... उस कलाकृति को बैंक्सी की दूसरी कृतियों से कम सराहना मिली है, क्योंकि करुणा पर एकराय, उन्माद ने बांट दी है.
कोई शक नहीं कि सारे युद्ध महिलाओं-बच्चों के खिलाफ होते हैं. वियतनामी फोटो पत्रकार निक यूट ने 1972 में वह भयावह फोटो खींची थी. उसमें 9 साल की निर्वस्त्र किम फुक गांववालों के साथ ट्रांग बांग में ‘नापाम’ बम का शिकार होकर भाग रही है. पाकिस्तान के क्वेटा की 2001 की वह तस्वीर कौन भूलेगा, जिसमें कंधार के घर में बम की चपेट में आई 7 वर्षीय फरमीना अस्पताल में जख्मी पड़ी हैं.
2015 में तुर्की के बोडरम तट पर पड़े प्रवासी शरणार्थी बच्चे के शव की तस्वीर ने दिल दहलाए थे. गाजा पर इजराइली हमले में दोनों हाथ खो देनेवाले 9 साल के महमूद अजूर की फोटो न्यूयॉर्क टाइम्स में छपी, तो फिलिस्तीनी फोटो पत्रकार समर अबु अलौफ को 2024 का ‘फोटो ऑफ द ईयर’ मिला.
5 से 12 दिसंबर को जब ‘शांति सप्ताह’ मनाया जा रहा होगा, तो हाल ही में जारी ओस्लो के पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट ‘कॉन्फ्लिक्ट ट्रेंड्स 2025’ बता रही होगी कि पृथ्वी की कुल 21% जमीन के 11.35% हिस्से पर युद्ध जारी हैं. युद्धक्षेत्रों में रहनेवाले 18 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की संख्या 52 करोड़ है. वे युद्ध के असर को भौगोलिक-मनोवैज्ञानिक-शारीरिक रूप से बर्दाश्त कर रहे हैं. मौजूदा दौर में हर 5 में से एक बच्चा किसी न किसी तरह युद्ध का शिकार है, जबकि 90 के दशक में यह संख्या आधी थी यानी 10 में से एक बच्चा युद्ध से प्रभावित था.
युद्ध से झुलस रहे देशों में दुनिया के 1.6 अरब बच्चे (65%) रह रहे हैं. भले ही वे सभी सीधे युद्ध अथवा संघर्ष क्षेत्र में नहीं हों, पर वे किसी न किसी तरह उससे प्रभावित हैं. उनके दिलोदिमाग के साथ बचपन भी युद्ध के साये में है. अफ्रीका महाद्वीप में 22 करोड़, एशिया में 17 करोड़, यूरोप में 1.5 करोड़ बच्चे युद्धक्षेत्र में रहते हैं.
अमेरिका में 6.5 करोड़ और मध्य-पूर्व में यह आंकड़ा 5 करोड़ है. इनमें से 83 लाख बच्चे तो उन युद्धक्षेत्रों में रहते हैं, जिन्होंने पिछले एक साल में 1000 या उससे अधिक मौतें देखी हैं. शांति के नोबल के दावे में शामिल हर सत्ताधीश किसी न किसी तरह युद्ध में शामिल रहा है और रहेगा.
यूं हर युद्ध यूं नहीं होता कि दिखे. कुछ युद्ध सतह के नीचे खदबदाते रहते हैं. विचार भ्रष्ट करते रहते हैं. कट्टरपंथी सत्ता में आने के हर मौके पर ऐसे कई युद्ध छेड़ते हैं, जो उनके रहने या न रहने पर भी चलते रहते हैं. दक्षिणपंथी दकियानूस हमेशा बेहतर शिक्षा, बेहतर जीवन, बेहतर जीने के तरीकों को खारिज करते रहते हैं और जनता को भरमाते रहते हैं कि वे उस युग को वापस लाने का प्रयास कर रहे हैं, जो अतीत में अनजाना स्वर्णयुग था, जिसे किसी ने कभी देखा नहीं. इसके लिए वे नए नायकों की प्रतिष्ठापना करते हैं, उदार कहकर रूढ़ियों को पुन:स्थापित करने को मनाते रहते हैं, संस्थानों पर कब्जे करते हैं और शिक्षा व इतिहास के पुनर्लेखन में जुटे रहते हैं.
इस युद्ध के शिकार भी बच्चे ही होते हैं. कोई शक नहीं कि यही ताकतें संसाधनों पर एकाधिकार या नियंत्रण के लिए युद्ध का वितंडा खड़ा करती हैं. जेम्स कैमरून की ‘अवतार’ फ्रेंचाइजी में भले ही बहाना किसी पेंडोरा का हो, पर वह युद्धक्षेत्र है हमारी ही धरती.
स्टीवन स्पीलबर्ग ने ‘एम्पायर ऑफ दि सन’, ताइका वेटिटी की ‘जोजो रैबिट’ , जॉन बोर्मन की ‘होप एंड ग्लोरी’, इसाओ ताकाहाता का घिबली-सिनेमा ‘ग्रेव ऑफ द फायरफ्लाई’, मार्कस जुकस की ‘द बुक थीफ’ , एंजेलिना जोली की ‘फर्स्ट दे किल माई फादर’, रीन क्लेमेंट की ‘फॉरबिडन गेम्स’, गुइलेर्मो डेल तोरो की ‘पिनाकियो’, आंद्रेई तारकोवस्की की ‘इवान चाइल्डहुड’, बोमन गोबाडी की ‘टर्टल कैन फ्लाई’ जैसी फिल्में उस भयावहता को बयान करती हैं, जिनकी बड़े आम तौर पर कल्पना नहीं करते. सबसे कमाल की फिल्म रॉबर्टो बेनिगनी की ‘द लाइफ इज ब्यूटीफुल’, जो हंसी से बार-बार व्याकुल करती है