America Donald Trump: अमेरिका के मंच पर डोनाल्ड ट्रम्प के दूसरी बार प्रगट होने के साथ ही संसार के समीकरण बदलने लगे हैं. इन समीकरणों के पीछे सिर्फ पूंजी ही प्रधान है. तमाम लोकतांत्रिक सिद्धांत, आदर्श और नैतिक मूल्य अब गुजरे जमाने के अध्याय हैं, जिन्हें नया वैश्विक समाज नहीं पढ़ना चाहता. अपने राष्ट्रहित के बहाने राष्ट्राध्यक्ष अधिनायक में तब्दील हो रहे हैं और अवाम उन्हें असहाय सी देख रही है. हालांकि यह सिलसिला कोई बहुत स्वस्थ परंपरा का हिस्सा नहीं है. इसके बाद भी करोड़ों लोग इसके समर्थक दिखाई देते हैं. यह विडंबना है.
आज का अमेरिका अपनी नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन करता है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि उससे केवल अमेरिका को लाभ या नुकसान होगा, बल्कि अनगिनत छोटे-मंझोले मुल्कों को अपना रवैया और रीति-नीति बदलने पर मजबूर होना पड़ेगा. ताजा उदाहरण रूस और यूक्रेन के बीच जंग रोकने के लिए अमेरिकी पहल है.
मंगलवार को सऊदी अरब में रूस और अमेरिका के विदेश मंत्री, अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार तथा व्हाइट हाउस के मध्यपूर्व प्रतिनिधि शामिल हुए. बैठक का विस्तृत ब्यौरा अभी नहीं आया है, पर यह स्पष्ट है कि यूक्रेन पर अमेरिका का दबाव काम आया है. यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की बुधवार को इस वार्ता में शामिल होने के लिए पहुंच रहे हैं.
पर जो संकेत मिले हैं, उनसे पता लगता है कि जेलेंस्की अब बेहद दबाव में हैं. उनकी आंखें खुल जानी चाहिए. यूक्रेनी राष्ट्रपति को समझना होगा कि उधार के सिंदूर से वे सुहाग की रक्षा नहीं कर पाएंगे. अमेरिकी और रूसी प्रतिनिधियों से जेलेंस्की की मुलाकात ही सबूत है कि अब इससे जेलेंस्की की हैसियत क्या हो गई है. अमेरिका ने यूक्रेन को मदद रोक दी है.
इसके बाद यूरोप भी यूक्रेन का साथ देने के मुद्दे पर बंट रहा है. पेरिस में फ्रांस के राष्ट्रपति इमेन्युअल मैक्रों ने सोमवार को खास यूरोपीय देशों की जो बैठक बुलाई थी,उससे संकेत मिलता है कि यूक्रेन को समर्थन के मसले पर यूरोपीय देशों में आम राय नहीं है. मैक्रों आक्रामक थे और यूक्रेन को अकेला नहीं छोड़ना चाहते थे.
इसी तरह ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कीर स्टारमर ने अपनी ढपली से अलग धुन निकाली. उन्होंने कहा कि यूक्रेन की मदद के लिए उनका देश अपनी सेनाएं तैनात करने जा रहा है. लेकिन जर्मनी के चांसलर ओलाफ शुल्ज ने इससे किनारा कर लिया. अलबत्ता उन्होंने यह जरूर कहा कि यूक्रेन के मामले में यूरोप और अमेरिका की नीति एक ही होनी चाहिए.
बैठक के बाद ट्रम्प ने मैक्रों से सीधे बात की. इसके बाद मैक्रों के तेवर भी ठंडे पड़ गए. इस तरह यूरोप अब अमेरिकी ऑर्केस्ट्रा पर नाचने के लिए बाध्य है. ब्रिटेन पसोपेश में है. उसने यूक्रेन में सेना तैनात करने का फैसला तो ले लिया, मगर उस पर अमल करना आसान नहीं है. यह भी स्पष्ट हो गया है कि नाटो की सदस्यता अब यूक्रेन को मिलने से रही.
अमेरिकी रक्षा मंत्री पीट हेगसेथ ने तो तीन दिन पहले ही ऐलान कर दिया था कि यूक्रेन को नाटो की सदस्यता संभव नहीं है. यानी यही बात तो रूस यूक्रेन को समझा रहा था कि वह नाटो में शामिल होगा तो नाटो सेनाओं को यूक्रेन के रास्ते रूस की सीमाओं पर तैनाती का मौका मिल जाएगा, तब जेलेंस्की की समझ में आया नहीं. अब लौट के बुद्धू घर को आए वाली तर्ज पर जेलेंस्की हाथ मल रहे होंगे.
लब्बोलुआब यह कि इस मामले में हारा हुआ खिलाड़ी यूक्रेन ही है. आपको याद होगा कि इसी पन्ने पर मैंने अनेक बार लिखा है कि यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की सियासत में आने से पहले विदूषक थे और वे अपने देश को विनाशकारी आग में झोंक रहे हैं. जब यह जंग खत्म होगी तो यूक्रेन हाथ झारि के चले जुआरी वाली स्थिति में होगा.
मैंने 9 जुलाई, 2024 को इसी पन्ने पर प्रकाशित अपने लेख में लिखा था कि यूक्रेन कुछ वर्षों से यूरोपीय और पश्चिमी देशों का खिलौना बन गया है. ढाई साल से जारी जंग इसका प्रमाण है. यूक्रेन यह सिद्धांत समझने के लिए तैयार नहीं है कि पड़ोसी से कितने ही शत्रुतापूर्ण संबंध हों, लेकिन जब घर में आग लगती है तो बचाता भी पड़ोसी ही है.
इसके पीछे मंशा यह होती है कि पड़ोसी अपना घर भी तो आग से बचाना चाहता है. लेकिन हास्य अभिनेता रहे राष्ट्रपति जेलेंस्की हकीकत को नजरअंदाज कर रहे हैं. वे नहीं समझ रहे हैं कि यूक्रेन अमेरिका और नाटो देशों की कठपुतली बन चुका है. नाटो ने अगर यूक्रेन को सदस्य बना दिया तो नाटो सेनाओं को यूक्रेन के लिए लड़ना पड़ेगा, जो यूरोप के देश नहीं चाहते. जेलेंस्की इतनी सी बात नहीं समझ रहे हैं.
माना जा सकता है कि जेलेंस्की की कूटनीति और विदेश नीति नाकाम रही है. परिणाम उनके देश को भुगतना पड़ा है. एक अनाड़ी को मुल्क की कमान सौंपने का नतीजा जनता भुगत रही है. रूस की कोख से निकलकर यूक्रेन रूस के खिलाफ ही मोर्चाबंदी का हिस्सा बन गया था. यह ठीक पाकिस्तान जैसा मामला है. भारत से दुश्मनी मोल लेकर वह दर-दर भटक रहा है.
अमेरिका हो या अरब देश, चीन हो या यूरोप, सारे मुल्क पाकिस्तान के साथ यूज एंड थ्रो की नीति अपना रहे हैं. यूक्रेन को भी यह समझना होगा कि बैसाखियों के सहारे देश नहीं चला करते. अमेरिका अब जो बाइडेन का अमेरिका नहीं है और ट्रम्प भी अब संसार को बदल डालने की मंशा से गद्दी पर नहीं आए हैं. यह अलग बात है कि अमेरिका पर ट्रम्प का यह रवैया भारी पड़ सकता है.