ब्लॉग: अंतरिक्ष की भावी भूमिकाओं की नींव तैयार
By अभिषेक कुमार सिंह | Updated: January 4, 2025 06:37 IST2025-01-04T06:37:39+5:302025-01-04T06:37:46+5:30
पेटेंट मिल जाने पर डॉकिंग मैकेनिज्म को ‘भारतीय डॉकिंग सिस्टम’ नाम दिया गया है.

ब्लॉग: अंतरिक्ष की भावी भूमिकाओं की नींव तैयार
भरोसेमंद रॉकेट बनाकर सस्ती लागत के साथ उपग्रहों का प्रक्षेपण करके भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने दुनिया में जो प्रतिष्ठा हासिल की है, उसने इसे एक विश्वसनीय और सुदृढ़ भविष्य की ओर मजबूती से कदम बढ़ाने वाले संगठन के रूप में स्थापित कर दिया है. इस संगठन के इन्हीं इरादों की एक नजीर हाल में तब मिली, जब 2024 खत्म होते-होते 30 दिसंबर को इसरो ने श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से रॉकेट पीएसएलवी-सी60 की मदद से अपना एक नया मिशन-स्पेडेक्स सफलतापूर्वक लॉन्च कर दिया है. स्पेडेक्स मिशन का महत्व इससे समझा जा सकता है कि स्पेस स्टेशन, गगनयान और चंद्रयान-4 समेत अब जो मिशन इसरो संचालित कर रहा है, उनमें स्पेडेक्स मिशन में होने वाले परीक्षणों की अहम भूमिका है.
खास तौर से अपने आखिरी चरण में जब तीन दिवसीय गगनयान मिशन से तीन भारतीय अंतरिक्ष यात्रियों को 400 किमी ऊपर पृथ्वी की निचली कक्षा वाले अंतरिक्ष में भेजा जाएगा और जब स्पेस स्टेशन परिचालन में आएगा, तो उसमें स्पेडेक्स से डाली गई नींव अपनी भूमिका निभाएगी और उपयोगिता साबित करेगी. यह कैसे होगा, इसके लिए स्पेडेक्स अभियान की बारीकियों को समझना होगा, जो अपने परीक्षणों की सफलता के साथ भारत के भावी अंतरिक्ष अभियानों का ठोस आधार स्थापित करेंगी.
असल में, स्पेडेक्स मिशन में इसरो ने एसडीएक्स01 और एसडीएक्स02 नाम के दो छोटे उपग्रह पृथ्वी की निचली कक्षा में 470 किमी ऊपर भेजे हैं. इनमें से पहला उपग्रह चेजर (पीछा करने वाले) यान की भूमिका में है, जबकि दूसरा वाला लक्ष्य या कहें कि टारगेट है. इनमें से प्रत्येक यान 220 किलोग्राम वजनी है और अपनी कक्षा में ये करीब 29 हजार किमी की गति से परिक्रमा कर रहे हैं. अगले दो साल की अवधि में ये उपग्रह अपनी कक्षा में रहते हुए तीन प्रमुख परीक्षणों को अंजाम देंगे.
इनमें पहला परीक्षण है डॉकिंग, दूसरा, डॉक किए गए अंतरिक्ष यानों में ऊर्जा का हस्तांतरण करना और तीसरा उद्देश्य है अनडॉकिंग के बाद पेलोड का संचालन करना. कुल मिलाकर स्पेडेक्स मिशन का उद्देश्य स्पेस में दो अंतरिक्ष यानों को ‘डॉक’ और ‘अनडॉक’ करने के लिए आवश्यक तकनीक को विकसित करना है. एक अंतरिक्ष यान से दूसरे यान के जुड़ने या कनेक्ट होने की प्रक्रिया को ‘डॉकिंग’ और अंतरिक्ष में जुड़े दो अंतरिक्ष यानों को अलग करने की प्रक्रिया को ‘अनडॉकिंग’ कहते हैं. इस मिशन का दूसरा उद्देश्य डॉकिंग प्रक्रिया संपन्न होने के बाद दोनों अंतरिक्ष यानों में परस्पर ऊर्जा का हस्तांतरण करना भी है.
भविष्य में स्पेस रोबोटिक्स जैसे प्रयोगों में ऊर्जा हस्तांतरण की यह तकनीक काफी अहम साबित हो सकती है. समय-समय पर उपग्रहों की देखरेख (सैटेलाइट सर्विसिंग), लंबी दूरी के अंतरिक्ष अभियानों (इंटरप्लेनेटरी मिशनों) और इंसानों को चंद्रमा पर भेजने में भी यह तकनीक काफी मददगार साबित हो सकती है. अगले कई चरणों में परीक्षणों की सफलता तय करेगी कि यह मिशन कामयाब रहा या नहीं. हालांकि इसरो की काबिलियत को देखते हुए कहा जा सकता है कि जल्द ही भारत अंतरिक्ष में उपग्रहों की डॉकिंग-अनडॉकिंग करने वाला दुनिया का चौथा प्रमुख देश बन जाएगा. अमेरिका, रूस और चीन यह क्षमता हासिल कर चुके हैं.
इनमें से सबसे पहले अमेरिका ने 16 मार्च 1966 को अपने जेमिनी-8 मिशन के तहत उपग्रह जेमिनी को एक अन्य टारगेट अंतरिक्षयान एजेना के साथ डॉक किया था. इसके अगले ही साल 30 अक्तूबर 1967 को सोवियत संघ (वर्तमान रूस) ने अपने दो उपग्रहों-कॉसमॉस 186 और कॉसमॉस 188 को स्वचालित तरीके से परस्पर डॉक किया था. उस समय अंतरिक्ष से यानों की वापसी के सिलसिले में अमेरिका और सोवियत संघ की इन उपलब्धियों के काफी बड़े मायने थे. चीन ने काफी बाद में 2 नवंबर 2011 को अपनी अंतरिक्ष-प्रयोगशाला तियांगोंग-1 के साथ बिना चालक दल वाले उपग्रह शेनझोऊ-8 को कामयाबी के साथ डॉक किया था.
अगर हम मौजूदा अंतरराष्ट्रीय स्पेस स्टेशन (आईएसएस) की भूमिकाओं पर गौर करें तो पता चलता है कि अंतरिक्ष में किसी यान या उपग्रह के लिए डॉकिंग या अनडॉकिंग प्रक्रिया का क्या महत्व है. असल में, आईएसएस का निर्माण ही कई टुकड़ों को जोड़कर या डॉकिंग के जरिये हुआ है. यही नहीं, इसकी अंदरूनी संरचनाओं में एक हिस्से से दूसरे हिस्से को डॉकिंग करके इस तरह जोड़ा गया है कि संपूर्णता में यह एक बड़े अंतरिक्षयान जैसा दिखाई देता है. इसके अलावा जब यहां नए अंतरिक्ष यात्री रहने आते हैं और पहले से निवासित यात्री आए हुए स्पेसक्राफ्ट से वापस पृथ्वी की ओर रवाना होते हैं, तो वहां पहुंचे यान की डॉकिंग और अनडॉकिंग-दोनों प्रक्रियाएं संपन्न कराई जाती हैं.
ऐसे में स्पष्ट है कि भारत जब डॉकिंग-अनडॉकिंग की यह क्षमता हासिल कर लेता है, तो स्वयं के स्पेस स्टेशन, गगनयान या चंद्रयान-4 आदि अभियानों में उसे इस तकनीक के लिए किसी अन्य देश पर निर्भर नहीं होना पड़ेगा. वैसे भी कोई अन्य देश इस संबंध में सिर्फ मदद करता है, वह तकनीक का हस्तांतरण नहीं करता है. ऐसे में भारत द्वारा खुद इस तकनीक का विकास करना जरूरी है.
उल्लेखनीय है कि दो उपग्रहों को अंतरिक्ष में परस्पर जोड़ने और अलग करने की इस पूरी प्रक्रिया या डॉकिंग मैकेनिज्म पर भारत ने पेटेंट लिया है. पेटेंट मिल जाने पर डॉकिंग मैकेनिज्म को ‘भारतीय डॉकिंग सिस्टम’ नाम दिया गया है. इस तकनीक यानी ‘इन-स्पेस डॉकिंग’ की जरूरत उस समय और ज्यादा होती है, जब किसी एक ही साझा मिशन के लिए कई रॉकेट लॉन्च करने पड़ते हैं और उनके अलग-अलग सामान अथवा उपकरण अंतरिक्ष में भेजे जाने होते हैं. इस नजरिये से देखने पर पता चलता है कि भारत जिस प्रकार से अगले कुछ ही वर्षों में खुद का अंतरिक्ष स्टेशन बनाने और गगनयान मिशन से अपने नागरिकों को अंतरिक्ष में भेजने के इरादे से जो काम कर रहा है, वहां इस तकनीक की महत्वपूर्ण भूमिका होगी.
भारत के अंतरिक्ष स्टेशन का निर्माण व संचालन करने और चंद्रमा पर भारतीय अंतरिक्षयात्रियों को भेजने आदि योजनाओं के लिए इस तकनीक की काफी जरूरत होगी. अंतरिक्ष में चंद्रमा पर यात्रियों को यान से जिस मॉड्यूल में भेजकर चंद्र-सतह पर उतारा और वापस यान से मॉड्यूल को जोड़ा जाएगा, वहां यह ‘इन-स्पेस डॉकिंग’ ही काम आएगी. डॉकिंग तकनीक ‘चंद्रयान-4’ जैसे दीर्घकालिक मिशनों और भविष्य में आयोजित किए जाने वाले दूसरे मिशनों के लिए मील का पत्थर साबित हो सकती है.