होली: अहंकार छोड़ कर आत्म विस्तार और नीरसता के खिलाफ हल्लाबोल का उत्सव

By गिरीश्वर मिश्र | Published: March 7, 2023 12:09 PM2023-03-07T12:09:08+5:302023-03-07T12:09:08+5:30

होली का उत्सव कई संदेश दे जाता है. इसका उल्लास बच्चों से लेकर वृद्ध तक सभी को अनूठे ढंग से जीवंत और स्पंदित कर देता है. इसलिए यह त्यौहार खास है।

Holi: A celebration of self-expansion by letting go of ego and clamoring against monotony | होली: अहंकार छोड़ कर आत्म विस्तार और नीरसता के खिलाफ हल्लाबोल का उत्सव

होली: अहंकार छोड़ कर आत्म विस्तार और नीरसता के खिलाफ हल्लाबोल का उत्सव

प्रकृति के सौंदर्य और शक्ति के साथ अपने हृदय की अनुभितू को बांटना बसंत ऋतु का तकाजा है. मनुष्य भी चूंकि उसी प्रकृति की एक विशिष्ट कृति है, इस कारण वह इस उल्लास सेअछूता नहीं रह पाता. माघ महीने  के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को वसंत की आहट मिलती है. परंपरा में वसंत को कामदेव का पुत्र कहा गया है इसिलए उसके जन्म के साथ इच्छाओं और कामना का संसार खिल उठता है. फागुन और चैत के महीने मिलकर वसंत ऋतु बनाते हैं. 

वसंत का वैभव पीली सरसों, नीले तीसी के फूल, आम में मंजरी के साथ, कोयल की कूक प्रकृति के सुंदर चित्र की तरह सज उठती है. फागुन की बयार के साथ मन मचलने लगता है और उसका उत्कर्ष होली के उत्सव में प्रतिफलित होता है. होली का पर्व वस्तुतः  जल, वायु  और वनस्पति से सजी संवरी नैसर्गिक प्रकृति के स्वभाव में उल्लास का आयोजन है.

वसंत में ऋतु परिवर्तन का यह रूप सबको बदलने पर मजबूर करता है. वह परिवेश में कुछ ऐसा रसायन घोलता है जो बेचैन करनेवाला होता है. वह किसी को भी वह नहीं रहने देता जो भी वह होता है, वह नहीं रह जाता. परिष्कार से वह कुछ और बन जाता है. वैसे भी मनुष्य होने का अर्थ ही होता है जुड़ना क्योंकि स्वयं में कोई अकेला व्यक्ति पूरा नहीं हो सकता. अधूरा व्यक्ति अन्य से जुड़ कर ही अपने होने का अहसास कर पाता है. पारस्परिकता में ही जीवन की अर्थवत्ता समाई रहती है. यह पारस्परिकता भारतीय समाज में उत्सवधर्मिता के रूप में अभिव्यक्त होती है जो ऊर्जा के अवसर उपस्थित करती है.

रंगोत्सव या होली का पर्व हर्ष और उल्लास के साथ आबालबृद्ध सबको अनूठे ढंग से जीवंत और स्पंदित कर देता है. पूर्णिमा की तिथि की रात को होलिका-दहन से जो शुरुआत होती है वह सुबह रंगों के एक अनोखे त्यौहार का रूप ले लेती है जिसमें ‘मैं’ और ‘तुम’ का भेद मिटा कर नकली दायरों को तोड़ कर, झूठ-मठू के ओढ़े लबादों को उतार कर सभी ‘हम’ बन जाते हैं. 

यह उत्सव आमंत्रण होता है उस क्षण का जब हम अहंकार का टूटना देखते हैं और उदार मन वाला हो कर, अपने को खोकर पूर्ण का अंश बनने के साक्षी बनते हैं. रंग, गुलाल और अबीर से एक-दूसरे को सराबोर करते लोग अपनी अलग-अलग पहचान से मुक्त हो कर एक-दूसरे को छकाने और हास-परिहास का पात्र बनाने की छूट ले लेते हैं. छोटे-बड़े और ऊंच-नीच के घरौंदों से बाहर निकल  कर लोग गाते-बजाते टोलियां बनाकर प्रसन्नता के साथ मिलते-जुलते हैं. 

होली के अवसर पर खुलापन और ऊष्मा के साथ लोग स्वयं का अतिक्रमण करते हैं. अहंकार छोड़ कर आत्म विस्तार का यह उत्सव नीरसता केविरुद्ध हल्लाबोल चढ़ाई भी होता है. जीने के लिए जीवंतता के साथ सबको साथ लिए चलने के उत्साह के साथ होली कठिन होते जा रहे दौर में रस का संचार करती है. होली में भगवान श्रीकृष्ण बहुत याद आते हैं और होली में नटखट, छैल-छबीले बनवारी श्रीकृष्ण बहुत याद आते हैं. श्रीकृष्ण को होली का नायक बनाकर अनेक कवियों ने सरस कविताएं रची हैं. कृष्ण और राधा की मधुरलीला से  होली सराबोर रहती है. गोकुल और बरसाने के क्षेत्र की होली की परंपरा कृष्ण की सुवास से अभी भी रंजित रहती है और अपार जनसमहू को आनंदित करती है.

सच कहें तो होली, फागुन और उमंग एक-दूसरे के पयार्यवाची हो चुके हैं. वसंत नए के स्वागत के लिए उत्कंठा का परिचायक है और होली का उत्सव इसका साक्षात मूर्तिमान  आकार है. रसिया, फाग और बिहू  के गान गाए जाते हैं. रंग शुभ है और जीवन का द्योतक है, इस समझ के साथ होली के आयोजन में करुणा, उत्साह और आनंद के भावों पर जोर रहता है. होली के बहाने मतवाला वसंत रंग भरने, हंसने-हंसाने,चिढ़ने चिढ़ाने की हद में राम,शिव और कृष्ण को भी सहजता से शामिल कर लेता है. अवध, काशी और वृंदावन में होली की अपनी खास विशेषताएं हैं. वह सबमें आनंद की अभिव्यक्ति उन्मुक्त होने में ही प्रतिफलित होती है.

आज इस तरह का भाव कुछ कम हो रहा है. व्यक्ति, समाज, प्रकृति और पर्यावरण के बीच समरसता को जैसे कोई बुरी नजर सी लग रही है. साथ चलने, परस्परपूरक होने और दूसरों का ख्याल रखने की भावना कमजोर होती जा रही है. लोभ और हिंसा अनेक रूपों में हम सबको छल रही है. दायित्वबोध की जगह भ्रष्टाचार की काली छाया जीवन को कलुषित कर रही है. मनुष्य होने की चरितार्थता विवेकशील होने में हैऔर विवेक प्रकृति के साथ जीने  में है. प्रकृति का संदेश समग्र जीवन की रक्षा और विकास में परिलक्षित होता है. बंधुत्व की भावना और स्वार्थ की जगह उदारता के साथ सबको जीने का अवसर देकर ही हम सच्चे अर्थों में मनुष्य हो सकेंगे.

होली का उत्सव अपने सीमित अस्तित्व का अतिक्रमण करने के लिए आवाहन है. वह लघु को विराट की ओर ले जाने की दिशा में प्रेरित करता है. तब लोक और लोकोत्तर के बीच के व्यवधान दूर होने लगते हैं और व्यष्टि चित्त समिष्ट चित्त  के साथ जुड़ने को तत्पर होता है. हम जीवन यात्रा में फिर नए हो जाते हैं. हमारे कदम उत्साह के साथ नई मंजिल की ओर चल पड़ते हैं. चलना ही जीवन है इसलिए चरैवेति ! चरैवेति!!

Web Title: Holi: A celebration of self-expansion by letting go of ego and clamoring against monotony

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