जैन धर्म में पर्यूषण महापर्व का विशेष महत्व है. यह केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं बल्कि आत्मा की गहराइयों तक जाने का, आत्मनिरीक्षण करने का और आत्मशुद्धि का अनूठा पर्व है. जैन संस्कृति ने सदियों से इस पर्व को आत्मकल्याण, साधना और तपस्या का महान माध्यम बनाया है. ‘पर्यूषण’ का शाब्दिक अर्थ है- अपने भीतर ठहरना, आत्मा में रमना, आत्मा के समीप होना. इस वर्ष अंत:करण की शुद्धि का यह महापर्व 20 से 27 अगस्त तक मनाया जा रहा है. इन आठ दिनों में हर जैन अनुयायी अपने तन और मन को साधनामय बना लेता है, मन को इतना मांज लेता है कि अतीत की त्रुटियों को दूर करते हुए भविष्य में कोई भी गलत कदम न उठे. इस पर्व में एक ऐसा मौसम ही नहीं, माहौल भी निर्मित होता है जो हमारे जीवन की शुद्धि कर देता है. इस दृष्टि से यह पर्व आध्यात्मिकता के साथ-साथ जीवन उत्थान का पर्व है.
जैन धर्म की त्याग प्रधान संस्कृति में पर्यूषण पर्व का अपना अपूर्व एवं विशिष्ट आध्यात्मिक महत्व है. इसमें जप, तप, साधना, आराधना, उपासना, अनुप्रेक्षा आदि अनेक प्रकार के अनुष्ठान से जीवन को पवित्र किया जाता है. पर्यूषण पर्व मनाने के लिए भिन्न-भिन्न मान्यताएं उपलब्ध होती हैं. आगम साहित्य में इसके लिए उल्लेख मिलता है कि संवत्सरी चातुर्मास के 49 या 50 दिन व्यतीत होने पर व 69 या 70 दिन अवशिष्ट रहने पर मनाई जानी चाहिए. दिगम्बर परंपरा में यह दशलक्षण महापर्व के रूप में मनाया जाता है. यह दशलक्षण महापर्व पर्यूषण पर्व के समाप्त होने के साथ ही शुरू होते हैं.
यह पर्व जैन अनुयायियों के लिए संयम, साधना और आत्मसंयम का विशेष अवसर लेकर आता है. पर्यूषण पर्व के अंतिम दिन ‘क्षमावाणी’ का आयोजन होता है, जिसे ‘क्षमा दिवस’ भी कहा जाता है. इस दिन हर व्यक्ति अपने परिचितों, रिश्तेदारों, मित्रों और यहां तक कि शत्रुओं से भी यह कहता है- ‘मिच्छामि दुक्कड़म्’ अर्थात् यदि मुझसे किसी को भी मन, वचन या शरीर से कोई पीड़ा पहुंची है तो मैं उसके लिए क्षमाप्रार्थी हूं. इस प्रकार क्षमा मांगने और क्षमा करने की परंपरा से समाज में सद्भाव, प्रेम और मैत्री का वातावरण बनता है.
पर्यूषण पर्व आत्मसंयम और आत्मिक साधना का गहन अभ्यास है. यह पर्व हमें याद दिलाता है कि जीवन का वास्तविक उद्देश्य भोग-विलास और सांसारिक उपलब्धियां नहीं हैं, बल्कि आत्मा का उत्थान और मोक्ष की दिशा में अग्रसर होना है.
यही कारण है कि इन दिनों में लोग केवल धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन ही नहीं करते, बल्कि व्यावहारिक जीवन में भी सात्विकता, करुणा, अहिंसा और सहअस्तित्व को अपनाने का प्रयास करते हैं. यह पर्व हर जैन साधक के लिए एक आत्मयात्रा है. तप, संयम, स्वाध्याय और क्षमा की साधना से वह स्वयं को नया जन्म देता है.