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गुरु पूर्णिमा: गुरु का महत्व क्या?

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: July 10, 2025 17:39 IST

Guru Purnima: पूर्णता कभी आती नहीं। वह शरीर के माध्यम से जीता है, संसार का पीछा करता है, और फिर भी भीतर अपूर्णता बनी रहती है।

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ठळक मुद्देशिष्य एक वृत्ति मात्र है, भावों, धारणाओं और मान्यताओं का समावेश, जो सतत अपूर्णता का अनुभव करता है।गुरु क्या है? गुरु उस स्पष्टता की आवाज़ है जो हमारे ही भीतर है।

आचार्य प्रशांत

गुरु कौन है, ये समझने से पहले यह जानना ज़रूरी है कि हम कौन हैं। क्योंकि गुरु प्रासंगिक सिर्फ़ हमारे संदर्भ में होता है। 'गुरु' शब्द की भी अगर विवेचना करें तो वह कहता है: जो तुम्हें 'गु' (अंधकार) से 'रु' (प्रकाश) तक ले जाए, वही गुरु है। गुरु के होने के लिए पहले 'गु' का होना ज़रूरी है। और 'गु' कौन है? 'गु' शिष्य है। शिष्य एक वृत्ति मात्र है,,भावों, धारणाओं और मान्यताओं का समावेश, जो सतत अपूर्णता का अनुभव करता है और इस कमी को पूरा करने के लिए शरीर और संसार का सहारा लेता है। शरीर, मस्तिष्क और संसार साथ चलते हैं। शिष्य स्वयं को शरीर मानकर उसके ज़रिए विभिन्न अनुभवों से अपनी अपूर्णता को भरना चाहता है। वह सोचता है कि यदि उसे पर्याप्त सांसारिक ज्ञान, वस्तुएँ या प्रतिष्ठा मिल जाएँ, तो वह पूर्ण हो जाएगा।

लेकिन वह पूर्णता कभी आती नहीं। वह शरीर के माध्यम से जीता है, संसार का पीछा करता है, और फिर भी भीतर अपूर्णता बनी रहती है। उसका संसार से लगाव इतना गहरा हो जाता है कि वह मुक्ति भी संसार में खोजने लगता है। इसीलिए गुरु आवश्यक हो जाता है।

गुरु का सशरीर होना आवश्यक नहीं

हम जैसे हैं वैसे हमें गुरु की आवश्यकता होती है, तो प्रश्न उठता है: क्या गुरु का सशरीर होना ज़रूरी है? नहीं, बिलकुल ज़रूरी नहीं है। गुरु क्या है? गुरु उस स्पष्टता की आवाज़ है जो हमारे ही भीतर है। वो आवाज़ जो विवेक का उपयोग करते हुए, हमें जो सही है उसका चुनाव करने के लिए प्रेरित करती है। जो अज्ञान को छोड़कर बोध का चुनाव कराती है। जो मानने से अधिक जानने और समझने को अग्रसर करती है। जो हमें अन्धकार में नहीं बने रहने देना चाहती और बोध के प्रकाश में ले जाना चाहती है।

ये आवाज़ गुरु बनकर किसी भी माध्यम से प्रकट हो सकती है: किसी पुस्तक में, किसी व्यक्ति में, या किसी एक क्षण में। लेकिन वो कोई बाहर की शक्ति नहीं है; वो हमारी ही वह आवाज़ है जो हर बार हमें याद दिलाना चाहती है कि हम क्या भूल चुके हैं। अक्सर हम उस आवाज़ को या तो अनदेखा कर देते हैं, या पहचान नहीं पाते – ऐसी स्थिति में गुरु साधन बन सकता है।

जीवित गुरु का महत्व कब होता है?

हम यदि ऐसे हों कि हमें दिख जाए कि हर तरफ़ उस परम तत्व की सत्ता है, वो तो सर्वत्र विराजता है – वो हर पल, हर माध्यम से हमें कुछ बताना चाहता है, कुछ कहना चाहता है, तो सशरीर गुरु की कोई आवश्यकता नहीं है। परंतु हम शरीर बन बैठते हैं, शरीर को ही कीमत देते हैं, शरीर की ही सुनते हैं, शरीर से ही सुनते हैं। ये हमारी ज़िद है।

चूँकि ये हमारी ज़िद है, इसलिए सशरीर गुरु आवश्यक हो जाता है। हम जैसे हैं, हमें तभी समझ में आता है जब इंसान बोले, इंसान की ही भाषा में। इसीलिए शिष्य को जीवित गुरु की आवश्यकता पड़ती है। अन्यथा सशरीर गुरु का कोई महत्त्व नहीं। जीवित गुरु का कार्य कठिन है, उसे काँटे से काँटा निकालना होता है। शिष्य का मूल काँटा यही है कि वह देह, पदार्थ और संसार से अत्यधिक आसक्त है।

गुरु स्वयं देहधारी होकर सामने आता है ताकि शिष्य उसकी बात सुन सके। गुरु को देह में आकर ही ये सिखाना होता है कि देह महत्त्वपूर्ण नहीं। उसका जीवित होना और शिष्य के मन को समझना दोनों ज़रूरी हैं। साथ ही, गुरु को यह सावधानी भी रखनी पड़ती है कि शिष्य उसकी देह या व्यक्तित्व से आसक्त न हो जाए।

गुरु की देह: साधन, साध्य नहीं

क्या सदा कोई जीवित गुरु चाहिए? नहीं, सभी को नहीं चाहिए। विरल संभावना है कि कोई बिना जीवित गुरु के भी बोध को प्राप्त कर ले, पर यह अपवाद है। लाखों में किसी एक के साथ ही ऐसा होता है। अधिकांश लोगों के लिए सशरीर जीवित गुरु की आवश्यकता बनी रहती है। तो पहली बात: जीवित गुरु की आवश्यकता है।

दूसरी बात: गुरु के लिए देह में आना ज़रूरी है, पर शिष्य के लिए गुरु को देह न मानना आवश्यक है। इन दोनों बातों का सार ये है कि पदार्थ और शरीर से जुड़ी आसक्तियों से आगे बढ़ना है। गुरु की देह बस एक साधन है, न कि साध्य। उसका बोलना भी केवल एक उपाय है। साध्य वह है जो निराकार है; साधन वह जो साकार है।

साध्य है - मुक्ति। अपने बंधनों, अज्ञानजनित कर्मों और जगत से पूर्णता की आकांक्षा से मुक्त होना। गुरु साधन बन सकता है, पर मूलतः गुरु आवश्यक नहीं, मुक्ति मात्र आवश्यक है। पर चूँकि हम स्वयं को अनेक संसारी वस्तुओं से पूर्ण करने को तत्पर रहते हैं, इसलिए हमें एक संसारी गुरु की आवश्यकता महसूस होती है।

सांसारिक वस्तुएँ और संसारी गुरु, दोनों अनावश्यक हो सकते हैं यदि हमें यह स्पष्ट हो कि मुक्ति कितनी आवश्यक है। पर ऐसा होता नहीं, क्योंकि हमें ये भी नहीं पता होता कि हम बंधन में हैं। यही अज्ञान हमारे दुख और बेचैनी का कारण है, इसलिए गुरु आवश्यक हो जाता है।

जब शिष्य के जीवन से सारी अनावश्यक वस्तुएँ हट जाती हैं, तो गुरु भी स्वयं हट जाता है। अंततः केवल बचता है - एकमात्र सत्य। जब दो नहीं होते, तो गुरु और शिष्य भी नहीं होते। यदि गुरु और शिष्य दोनों हैं, तो द्वैत अभी शेष है। जब माया है, तभी तक गुरु है; माया हटते ही गुरु भी हट जाता है।

गुरु पूर्णिमा का असली अर्थ

गुरु पूर्णिमा किसी व्यक्ति या परंपरा का उत्सव नहीं है। यह उस का सम्मान है जिसने हमें देखने की दृष्टि दी, और हमें छोड़ दिया जब हम देखना सीख गए। यह नमन है उस शब्द को जिसने हमें सत्य से प्रेम करना सिखाया। जो पास आया, ताकि हम बिना झुके अकेले चलना सीख सकें। जिसने बताया कि अज्ञान के अन्धकार में जीवन जीना नियति नहीं, चुनाव है।

यदि ऐसा गुरु मिला है, तो यह दिन उस अनुग्रह को समझने का अवसर बने; ये कोई औपचारिकता नहीं, बल्कि ज़िम्मेदारी है। यह गुरु पूर्णिमा केवल दीप जलाने या फूल चढ़ाने का दिन न होकर वो क्षण बने जब हम सच में मुक्ति की ओर कदम बढ़ाएँ, और आत्मज्ञान के प्रकाश में स्वयं और जगत को सही अर्थों में समझ सकें।

आचार्य प्रशांत-

एक वेदान्त मर्मज्ञ और दार्शनिक हैं, तथा प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के संस्थापक हैं। उन्होंने अनेक पुस्तकों की रचना की है और उन्हें विभिन्न सम्मानों से सम्मानित किया गया है, जिनमें Most Influential Vegan Award (PETA), OCND Award (IIT Delhi Alumni Association), और Most Impactful Environmentalist Award (Green Society of India) शामिल हैं।

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