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Diwali 2024: तमस छोड़ ज्योति का वरण करने का पर्व

By गिरीश्वर मिश्र | Updated: November 1, 2024 13:12 IST

Diwali 2024: कृषि जीवन, ऋतु-परिवर्तन और मर्यादा पुरुषोत्तम राम के स्वागत से अलग छिटकते उत्सव वैभव के प्रतीकों से जुड़ते जा रहे हैं.

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ठळक मुद्देजीवन में सभी इसी का उद्यम करते रहते हैं कि आर्थिक समृद्धि निरंतर बढ़ती रहे.दीपावली का त्यौहार अब सम्पत्ति और वैभव का उत्सव होता जा रहा है. सांस्कृतिक यात्रा में पौराणिक अतीत से आगे बढ़ कर धन-सम्पदा के समारोह में तब्दील होता गया है.

Diwali 2024: इस क्षणभंगुर संसार में उन्नति और अभिवृद्धि सभी को प्रिय है. साथ ही यह बात भी बहुत हद तक सही है कि इसका सीधा रिश्ता वित्तीय अवस्था से होता है. पर्याप्त आर्थिक संसाधन के बिना किसी को इच्छित सिद्धि नहीं मिल सकती. लोक की रीति को ध्यान में रखते कभी भर्तृहरि ने अपने नीति शतक में कहा था कि सभी गुण कंचन अर्थात् धन में ही समाए हुए हैं. धनी व्यक्ति की ही पूछ होती है, वही कुलीन और सुंदर कहा जाता है, वही वक्ता और गुणवान होता है, उसी को विद्वान के रूप में प्रतिष्ठा मिलती है. इसलिए जीवन में सभी इसी का उद्यम करते रहते हैं कि आर्थिक समृद्धि निरंतर बढ़ती रहे.

दीपावली का त्यौहार अब सम्पत्ति और वैभव का उत्सव होता जा रहा है. वह अपनी सांस्कृतिक यात्रा में पौराणिक अतीत से आगे बढ़ कर धन-सम्पदा के समारोह में तब्दील होता गया है. कृषि जीवन, ऋतु-परिवर्तन और मर्यादा पुरुषोत्तम राम के स्वागत से अलग छिटकते उत्सव वैभव के प्रतीकों से जुड़ते जा रहे हैं.

लक्ष्मी-गणेश की शुभ मुहूर्त में पूजा और घर में दीप जलाने के आयोजन के साथ कई अर्थहीन मिथक भी जुड़ गए हैं. उदाहरण के लिए इस दिन जुआ खेलना बहुतों का एक अनिवार्य अभ्यास हो चुका है. आज का मनुष्य अधिकाधिक लक्ष्मीप्रिय होता जा रहा है. अब उसे सिर्फ धन-संपदा से मतलब है, वह चाहे किसी भी तरह क्यों न प्राप्त हो.

यह मान कर कि अंतिम परिणाम ही महत्व का होता है, लोगों के मन में अब सिर्फ साध्य की ही चिंता बनी रहती है. साध्य या लक्ष्य को पाने के साधन या उपाय की चिंता कोई मायने नहीं रखती. आज किस्म-किस्म के झूठ-फरेब के जरिए कमाई के उपाय आजमाने से कोई नहीं हिचकता. द्वंद्वों से परे होती जा रही है धन की लालसा और वैभव का अहंकार.

मौजूदा दौर में भौतिक सम्पदा पाने की बेइंतहा लालसा तेजी से बढ़ रही है. इसके लिए व्यग्र बेचैन लोग कुछ भी करने पर उतारू रहते हैं. उन्हें इसकी तनिक भी फिक्र नहीं होती कि उन्हीं जैसे और लोगों को, उस समुदाय को जिसके वे सदस्य हैं या फिर वह समाज जो उनको जीने के साधन और अवसर मुहैया करा रहा है, सबको, उनके निजी अनियंत्रित आचरण का कितना बेधक खामियाजा भुगतना पड़ रहा है.

कहना न होगा कि यह समाजद्रोही आत्मरति व्यापक तौर पर जीवनद्रोही और हिंसक हो कर मनुष्यता के लिए गंभीर खतरा बनती जा रही है. लोग अपने पास-पड़ोस की धन-सम्पत्ति पर कब्जा जमाने की प्रवृत्ति के साथ चोरी, बेईमानी, धोखाधड़ी, उपद्रव आदि से कोई परहेज नहीं करते. अर्थ-प्रियता की प्रवृत्ति के ही चलते सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन में बेईमानी और भ्रष्टाचार का लम्बा सिलसिला चल निकला.

अब अर्थ का कारोबार प्रकट और प्रच्छन्न तरीके से छल-छद्म के तमाम पैंतरों के साथ खूब फल-फूल रहा है. इस तरह के प्रकरणों में अपराध और अपराधी तय करना और कानूनी प्रक्रिया द्वारा अपराधी को सजा दिलाना टेढ़ी खीर साबित हो रही है. कानूनी प्रक्रिया उलझाऊ, जटिल और उबाऊ हो चुकी है. दीर्घ काल से लम्बित कई मामलों में सम्बंधित आरोपी, अभियुक्त और साक्षी मर खप जाते हैं.

पिछले सालों में कई लोमहर्षक वारदातें हुईं और कई मौकों पर पूरा देश बड़ा उद्वेलित हुआ था. पर जल्दी ही आम जनता की स्मृति से बात ओझल हो गई और फिर सब कुछ अपनी गति से पुराने ढर्रे पर चलता रहता है. वस्तुतः समाज में मुफ्त या सस्ते की कमाई का आकर्षण दुर्निवार होता है.

सस्ते तरीकों को अपनाकर ज्यादा पैसा उगाहने के लिए तत्पर उद्योगों का आम जनों के स्वास्थ्य और सुरक्षा से कुछ भी लेना-देना नहीं होता है. त्यौहार और पर्व के अवसर पर दूध, पेय-पदार्थ, पनीर, मावा और मिठाई में मिलावट जिस पैमाने पर हो रही है उससे जन-स्वास्थ्य लिए खतरा बढ़ता जा रहा है.

जिस तरह से जीवनविरोधी प्रवृत्ति फैल रही है उससे यही लगता है कि सामाजिक नियंत्रण के उपाय कमजोर हो रहे हैं और उनकी रोकथाम के लिए जरूरी इच्छा शक्ति नहीं है. उन्हें लागू करने में वांछित सफलता नहीं मिल पा रही है. उसका परिणाम होता है गाहे-बगाहे जन-जीवन और धन-सम्पदा की अकारण हानि तथा प्रकृति-पर्यावरण का अंधाधुंध दोहन.

इस तरह से देश को अपूरणीय क्षति हो रही है. सभी यह जानते हैं कि यह भौतिक सुख के साधन धरा ही रह जाएगा परंतु उसके लिए सभी बेतहाशा व्यग्र हैं और कानून व्यवस्था को तोड़ने पर वे आमादा रहते हैं. कार्य में कोताही और गुणवत्ता के प्रति उदासीनता हमें पीछे ले जाती है. स्वदेशी तकनीक और आत्मनिर्भर देश के निर्माण के लिए कार्य में कुशलता और ईमानदारी का कोई विकल्प नहीं है.

लाभ तो होना चाहिए पर वह अशुभ कदापि न हो. अपने कर्म और प्रतिभा के साथ शुभ लक्ष्मी का सदैव स्वागत है. हमारे भीतर की तामसिक वृत्तियों को छोड़ कर ज्योति का वरण ही देश को प्रगति पथ पर ले जा सकेगा. दीपावली का पर्व इस प्रतिबद्धता के लिए समर्पित होने का अवसर है.

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