राजेश बादल का ब्लॉगः सियासी दलों में परिपक्व लोकतांत्रिक सोच जरूरी
By राजेश बादल | Published: October 2, 2019 06:33 AM2019-10-02T06:33:34+5:302019-10-02T06:33:34+5:30
हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव में किसकी विजय होगी? यह सवाल महीने भर राजनीतिक पंडितों को व्यस्त रखने का सबब बन सकता है. लेकिन मुद्दा यह नहीं है कि सरकार किसकी बनेगी. सवाल तो यह है कि 2019 का हिंदुस्तान क्या संसार के सबसे प्राचीन और विराट लोकतंत्न का आधुनिक संस्करण प्रस्तुत कर रहा है?
हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव में किसकी विजय होगी? यह सवाल महीने भर राजनीतिक पंडितों को व्यस्त रखने का सबब बन सकता है. लेकिन मुद्दा यह नहीं है कि सरकार किसकी बनेगी. सवाल तो यह है कि 2019 का हिंदुस्तान क्या संसार के सबसे प्राचीन और विराट लोकतंत्न का आधुनिक संस्करण प्रस्तुत कर रहा है?
कई विद्वानों का तर्क है कि 1947 के बाद से भारतीय गणतंत्न यहां तक पहुंचा है तो अनावश्यक चिंता क्यों करें. लिटमस उदाहरण देते हुए वे कहते हैं कि पड़ोसी देशों में गणतंत्न की जड़ें होते हुए भी क्यों नहीं फल-फूल सकीं? उनकी दृष्टि में इस मुल्क की आबोहवा ही ऐसी है, जिसमें केवल लोकतांत्रिक बयार बह सकती है. एक कदम आगे जाते हुए वे कहते हैं कि भारत पर सदियों तक तानाशाही के घुड़सवार चढ़ाई करते रहे, पर क्या वे हिंदुस्तान के बुनियादी ताने-बाने और सामाजिक ढांचे को हिला पाए? यह आज भी मजबूती से खड़ा है.
इस अवधारणा को मानने वालों से विनम्र असहमति दर्ज करते हुए निवेदन है कि हजार साल तक सामंती और निरंकुश परिवेश ने महा-जनपद काल के गणतांत्रिक बीजों को हाइब्रिड बीजों में बदल दिया है. अब हम दुनिया के सबसे पुराने वैशाली लोकतंत्न के बीज स्वाद को भूलकर मुगलकाल व अंग्रेजी गुलामी से मिलकर निकले संकर बीजों का स्वाद चख रहे हैं. इस स्वाद ने हमारी सोच और संस्कारों पर भी प्रभाव डाला है. पश्चिम और यूरोप में भी यह देखने को मिल रहा है, पर वे अपने कट्टर बीजों को दफन कर चुके हैं. भारत के लोग ऐसा नहीं कर पाए. इसीलिए लोकतंत्न के आवरण में लिपटी हुई अधिनायक देह का विस्तार रोकना आज पहली शर्त है.
बात कुछ और आसान करता हूं. हर दौर में भारतीय राजनीति के कुछ नियामक सिद्धांत रहे हैं. इनकी रक्षा पक्ष और प्रतिपक्ष करते आए हैं. आजादी के बाद भी इस परंपरा का पालन होता रहा. नई सदी में दाखिल होने के बाद इन नियामक सरोकारों के लिए जगह सिकुड़ती सी जा रही है. अपवाद स्वरूप कुछ घटनाएं ऐसी हुईं, जिनसे लोकतंत्न की नैया डगमगाती नजर आई, लेकिन बाद में यह संभल गई. इन दिनों चुनाव मैदान में उतरने के बाद कोई पराजय स्वीकार नहीं करना चाहता. चलन हो गया है कि सिर्फ जीतने वाले उम्मीदवारों को टिकट दिया जाना चाहिए.
मौजूदा समय में जीतने के प्रपंच योग्य राजनेताओं की बलि ले लेते हैं. बाहुबल, धनबल और तिकड़म- इन तीन कुटेवों ने सियासत पर कब्जा कर लिया है. इससे राजनीति का क्रूर औद्योगिक चेहरा हमारे सामने है. सदियों तक दास बनकर रहने की मानसिकता ने आम आदमी को उस ताकत के सामने सिर झुकाने पर विवश कर दिया है. इससे सत्ता में अच्छे लोगों के प्रवेश का द्वार बंद हो जाता है. एक राजनेता सारे मामलों का पंडित नहीं हो सकता. देश को चलाने के लिए ज्ञानवानों की बड़ी जमात चाहिए.
अफसोस कि आज सियासत ऐसे लोगों को हिकारत से देखती है. यह सबसे बड़ा संकट है. दूसरी बात असुरक्षा बोध है. मध्यकाल के बादशाहों की तरह, जिन्हें भाइयों और पुत्नों और मित्रों से ही घात का खतरा रहता था. काबिल व्यक्तित्व तो उस समय भी दबे -कुचले और शोषित ही रहते थे. राजनेता समर्थक तो चाहते हैं, पर बराबरी पर बैठने वाले राजनेता नहीं चाहते. राष्ट्रीय राजनीति में बेहतरीन और प्रतिभा संपन्न राजनेताओं की उपेक्षा का लंबा सिलसिला और अतीत है.
ये राजनेता सारी उमर दूसरी तीसरी पंक्ति से आगे नहीं बढ़ सके. शिखर पुरुषों को यह वेदना समझनी होगी कि अब दरी बिछाने वाले और पांच सौ रुपए के साथ पूड़ी-सब्जी के पैकेट बांटने वाले कार्यकर्ता रखने का वक्त नहीं रहा. पार्टी में लोकतंत्न चाहे परिपक्व न हुआ हो, परंतु प्रादेशिक और स्थानीय नेताओं की महत्वाकांक्षाएं तो परिपक्व हुई हैं. उन्हें सूरज-चांद और सितारों की तरह चमकने का अवसर चाहे न मिले, मगर अपने इलाके में जुगनू की तरह चमकने की ख्वाहिश रखने से पार्टी नहीं रोक सकती. वे चाहेंगे कि उनकी पार्टी के सितारे भी जुगनू के मंद प्रकाश को स्वीकारें. इस परंपरा को फिर स्थापित नहीं किया गया तो सियासत निजी स्वार्थो के लिए सौदेबाजी करने वालों का झुंड बन जाएगी. जो पार्टी द्वितीय और तृतीय पंक्ति की योग्यताओं को सलाम नहीं करेगी, उसका आलाकमान एक दिन पाएगा कि नीचे से जाजम खींच दी गई है.
स्वस्थ्य जनतंत्न की अनिवार्य शर्त सक्षम प्रतिपक्ष भी है. असहमति के स्वर को पर्याप्त स्थान नहीं देना इसका सबूत है कि हमारे संकर बीजों में मध्यकाल की तानाशाही के विचार अभी भी हैं. स्वतंत्नता के बाद प्रतिपक्ष का स्वर मुखरित करने के लिए असहमत नेताओं को संसद में लाने के लिए सत्तापक्ष की ओर से प्रयास किए जाते थे. इसके पीछे मंशा होती थी कि किसी भी राष्ट्रीय महत्व के विषय को केवल सत्तापक्ष के चश्मे से न देखा जाए. उसमें अनेक ढंग से आलोचना के कोण भी देखे जाएं, जिससे मुल्क के विकास में निदरेष नीतियां सामने आ सकें. तब चुनाव में योग्य विपक्षी नेताओं को जिताने के लिए सत्तापक्ष उनके सामने अपेक्षाकृत कमजोर उम्मीदवार उतारता था. भावना यह होती थी कि भारत के भविष्य के लिए वे संसद में जरूरी हैं. आज तो इसके उलट छल, प्रपंच और सारे हथकंडों का इस्तेमाल इसीलिए किया जाता है कि संसद या विधानसभा में पहुंच कर वह सिरदर्द न बने. सियासी स्वार्थो के चलते देश के हितों की कुर्बानी के ऐसे अद्वितीय प्रमाण भारत में ही मिल सकते हैं.