क्षेत्रीय सपनों की राष्ट्रीय उड़ान का आधार?

By राजेश बादल | Published: August 7, 2018 05:01 AM2018-08-07T05:01:53+5:302018-08-07T05:01:53+5:30

भारतीय लोकतंत्न की अवधारणा ही सामूहिक नेतृत्व पर टिकी हुई है।

Rajesh Badal Opinion on National Politics of regional Parties | क्षेत्रीय सपनों की राष्ट्रीय उड़ान का आधार?

क्षेत्रीय सपनों की राष्ट्रीय उड़ान का आधार?

राजेश बादल

वैसे तो भारतीय लोकतंत्न की परंपरा और संवैधानिक स्थिति कहती है कि निर्वाचित सांसद ही सदन के नेता यानी प्रधानमंत्नी का चुनाव करते हैं। चुनाव से पहले ही चेहरे को पेश करना कोई बहुत अच्छी और स्वस्थ स्थिति नहीं है। लेकिन आज के दौर में बाजार का असर राजनीति पर भी पड़ा है और नेता को ब्रांड की तरह प्रस्तुत किया जाने लगा है। इसके अनेक खतरे हैं। अव्वल तो यह कि ब्रांड श्रेष्ठता का प्रतीक बन जाता है। पार्टी में उससे अच्छा तथा प्रतिभाशाली कोई अन्य नेता नहीं है। यह स्थिति ब्रांड को भ्रम पालने का अवसर देती है कि उसके दम पर ही पार्टी और देश चल रहा है। यह कहीं न कहीं अधिनायकवादी प्रवृत्ति को पनपने देती है और लोकतंत्न की भावना के खिलाफ है। भारतीय लोकतंत्न की अवधारणा ही सामूहिक नेतृत्व पर टिकी हुई है।
   
हाल ही में कुछ प्रतिपक्षी दलों ने आगामी चुनाव में कांग्रेस के चेहरे के रूप में अपने पार्टी अध्यक्ष को आगे करने पर असहमति जताई है। तृणमूल कांग्रेस इसमें प्रमुख है। इसके बाद कांग्रेस ने अपने निर्णय पर पुनर्विचार का रास्ता खोला है। तकनीकी तौर पर यह फैसला उचित लगता है। गठबंधन सरकारों के युग में सिद्धांतों और विचारधारा के आधार पर ही चुनाव से पूर्व तालमेल होना चाहिए न कि चेहरे के आधार पर। जिस दल के पास सबसे अधिक सांसद होंगे, उसके नेता की दावेदारी बढ़ जाती है और उसे ही अपने नेता को प्रधानमंत्नी बनाने का हक है। लेकिन भारत में प्रतिपक्ष के बड़े गठबंधन में शामिल दलों को अपनी  राजनीतिक जमीन भी देखनी चाहिए। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) में कांग्रेस के सिवा अखिल भारतीय स्तर का दूसरा दल कौन सा है? मौजूदा चुनावी परिदृश्य में भले ही वह सिकुड़ती नजर आ रही हो मगर उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम में उसका अभी भी अपना वोट आधार है। सवा सौ साल पुराना इतिहास है। आज कांग्रेस के पास ठोस और भरोसेमंद प्रादेशिक क्षत्नप नहीं दिख  रहे, लेकिन अन्य सहयोगी दलों से वह काफी आगे नजर आती है।
 
अगर तृणमूल कांग्रेस की बात करें तो दो दशक से भी ज्यादा पुरानी इस पार्टी का आधार मुख्य रूप से बंगाल ही है। बीस पच्चीस साल किसी एक दल को उभरकर राष्ट्रीय पहचान बनाने के लिए पर्याप्त होते हैं, लेकिन पार्टी ने ऐसा नहीं किया। एक वैकल्पिक अध्यक्ष तक पार्टी के पास नहीं है। राज्यों में इक्का दुक्का इकाइयां ही हैं। पार्टी कम-से-कम बिहार, ओडिशा, झारखंड, असम तथा उत्तर-पूर्व के अन्य राज्यों में तो विस्तार कर ही सकती थी।
 
इसी तरह दूसरी महत्वपूर्ण पार्टी राष्ट्रवादी कांग्रेस है। इस दल ने भी बीस-पच्चीस वर्षो में महाराष्ट्र के आगे अपनी सीमाओं का उल्लेखनीय विस्तार नहीं किया है। इस दल को मध्य प्रदेश, गोवा, गुजरात, राजस्थान, तेलंगाना और आंध्र में जड़ों को फैलाने से किसने रोका था। महाराष्ट्र में भी कांग्रेस का अच्छा खासा जनाधार है। ऐसी सूरत में राष्ट्रीय पहचान के लिए एनसीपी को अभी लंबा संघर्ष करना पड़ेगा, तभी वह अपना प्रधानमंत्नी बना सकेगी। इन दोनों दलों में एक बात समान है कि वे कांग्रेस से टूट कर निकले हैं। उनका वैचारिक धरातल कांग्रेस जैसा ही है। समाजवादी पार्टी की कहानी भी अलग नहीं है। करीब तीन दशक पुरानी इस पार्टी ने कभी उत्तर प्रदेश से आगे बढ़ने की सोची ही नहीं। अखिलेश यादव को तो अभी उत्तर प्रदेश से ही अपना प्रमाणपत्न लेना बाकी है। क्या वे प्रधानमंत्नी पद का सपना देख सकते हैं? बहुजन समाज पार्टी की स्थिति भी कोई बेहतर नहीं है। मायावती को पहले उत्तर प्रदेश का किला फतह करना होगा। प्रधानमंत्नी पद के चेहरे की दावेदारी के लिए उसे बड़ी अंदरूनी मशक्कत करनी होगी। कमोबेश यही हाल आरजेडी और डीएमके का है। हिंदुस्तान के लोकतंत्न की पथरीली जमीन पर मजबूती से पांव टिकाने के बाद ही उन्हें कांग्रेस के दावे का विरोध करना चाहिए।

प्रतिपक्षी एकता में शामिल दलों को एक बात यह भी देखनी होगी कि वे राष्ट्रीय स्तर पर अपना चेहरा लेकर लोकसभा चुनाव में उतरने की स्थिति में नहीं हैं। एक बार ममता बनर्जी को चेहरा मान लें तो क्या उन्हीं के राज्य के वाम दल उन्हें प्रधानमंत्नी स्वीकार करेंगे? अगर मायावती को चेहरा घोषित किया जाए तो क्या समाजवादी खेमे में विरोध नहीं होगा? अगर शरद पवार को चेहरा माना जाए तो कांग्रेस में उनकी स्वीकार्यता कितनी होगी? जाहिर है किसी भी सहयोगी दल को कांग्रेस से ज्यादा अपने सांसद लोकसभा में भेजने होंगे, जो बहुत कठिन लगता है। इसके अलावा यह भी देखना होगा कि बहुमत से दूर होने पर किसी सहयोगी दल के उम्मीदवार को अधिक समर्थन मिलेगा या कांग्रेस के उम्मीदवार को? कांग्रेस के छाते में एक बार वाम दल साथ आ सकते हैं, अपनी अलग खिचड़ी पका रहे बीजू जनता दल का समर्थन मिल सकता है, भाजपा से नाराज चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देशम भी साथ दे सकती है और महागठबंधन में शामिल उ.प्र. के दोनों प्रतिद्वंद्वी दल भी सहयोग दे सकते हैं। बाकी किसी क्षेत्नीय दल के चेहरे को प्रधानमंत्नी पद के लिए कांग्रेस के बराबर स्वीकार्यता मिलेगी - कहना मुश्किल है।

हिंदुस्तान में चेहरे को ध्यान में रखकर 1996 तक कभी चुनाव नहीं लड़ा गया। यह अलग बात थी कि कांग्रेस की जीत पर चेहरा होता था। लोगों को अंदाज होता था कि जीतने के बाद कौन प्रधानमंत्नी बनेगा। पहली बार 1977 में ऐसा हुआ कि लोग जानते थे कि कांग्रेस तो हारेगी और जनता पार्टी जीतेगी, लेकिन  प्रधानमंत्नी कौन होगा - यह कोई नहीं जानता था। अटल बिहारी वाजपेयी, जगजीवन राम, हेमवतीनंदन बहुगुणा, मधु दंडवते, चौधरी चरण सिंह और चंद्रशेखर जैसे तपे तपाए नेता प्रधानमंत्नी पद की दौड़ में थे। मगर बाजी जीती मोरारजी देसाई ने, जो अस्सी से ऊपर के थे और जयप्रकाश नारायण का चुनाव थे। अनेक राजनेता जेपी के इस फैसले से खफा थे। शिखर नेताओं के आपसी झगड़ों के चलते जनता पार्टी केवल तीन साल में बिखर गई। इसके बाद 1990 के चुनाव भी चेहरे को सामने रख कर नहीं लड़े गए थे। सिर्फ राजीव गांधी के विरोध के नाम पर विपक्ष एकत्रित हुआ। उसमें भी कांग्रेस से निकले नेता ही थे। आपको याद होगा, उस चुनाव के बाद देवीलाल को संसदीय दल का नेता चुना गया था। देवीलाल ने खुद अपनी पगड़ी उतारकर विश्वनाथ प्रताप सिंह के सिर पर रख दी थी। वी.पी. सिंह प्रधानमंत्नी बन गए थे। लेकिन डेढ़ साल में ही यह गैर कांग्रेसी कुनबा बिखर गया। जब 1991 के चुनाव के दरम्यान राजीव गांधी की हत्या हुई तो उस समय भी कोई चेहरा मतदाताओं के सामने नहीं था। दिल्ली से बहुत दूर बैठे पी.वी. नरसिंह राव प्रधानमंत्नी के रूप में देश के सामने थे।
       
भाजपा ने पहली बार 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी को चेहरा घोषित करके चुनाव लड़ा था। उस चुनाव में शरद पवार, माधवराव सिंधिया, अर्जुन सिंह और नारायण दत्त तिवारी जैसे दिग्गज कांग्रेस से बाहर हो चुके थे। इसलिए कांग्रेस को उसका नुकसान हुआ। दरअसल देश में राजनीतिक अस्थिरता का दौर इसी काल में शुरू हुआ। तीन साल में ही बार-बार चुनाव से मतदाता बेहद थक चुके थे। वे कहते थे-काम करो या न करो, पांच साल तो टिके रहो। 2004 में जब अटलजी का फीलगुड नारा नहीं चला तो भी कांग्रेस ने चेहरा सामने रखकर चुनाव नहीं लड़ा था।  लब्बोलुआब यह कि भारत में मतदाता अपनी नापसंदगी के आधार पर वोट करता है। क्या मिलेगा इस पर उसका ध्यान शायद नहीं रहता। यही हमारे लोकतंत्न की खूबी है कि सरकार के पांच साल का मूल्यांकन होता है न कि इस पर कि चेहरा कौन होगा।

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Web Title: Rajesh Badal Opinion on National Politics of regional Parties

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