बुद्धिजीवी वर्ग की सोच, नेताओं की योजनाएं और जुलूस व नारों में सिमटती संवेदनशीलता!

By राहुल मिश्रा | Updated: May 19, 2018 12:39 IST2018-05-19T12:36:29+5:302018-05-19T12:39:23+5:30

बुद्धिजीवी वर्ग इतराता है ड्राइंग रूम में सजे गलीचे को देख, जो किसी मासूम के कोमल हाथों की कारीगरी है। चाय की चुस्कियों में खो जाता है, उस अबोध राजू के द्वारा परोसे गए प्याले में।

intellectual classes thinking, leaders' plans and processions-sympathetic sensitivity rumple in slogans | बुद्धिजीवी वर्ग की सोच, नेताओं की योजनाएं और जुलूस व नारों में सिमटती संवेदनशीलता!

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आज के वर्तमान समय में बुद्धिजीवी वर्ग देश में हर ओर चौतरफा लकीरें खींच रहा है। लकीरें सफलताओं की , लकीरें उन्नति की, लकीरें भविष्य की, लकीरें ज्ञान की, लकीरें आत्म-उत्थान की, पर ये लकीरें वस्तुतः धुंधला जाती हैं जब यही बुद्धिजीवी वर्ग इतराता है ड्राइंग रूम में सजे गलीचे को देख, जो किसी मासूम के कोमल हाथों की कारीगरी है। चाय की चुस्कियों में खो जाता है, उस अबोध राजू के द्वारा परोसे गए प्याले में। उसे हाईवे के ढ़ाबे की रोटियाँ गज़ब स्वाद देती हैं जिसमें पसीना मिला है, छोटे छोटू का। गरीब के हाथों से बनी बीड़ी का अजब नशा है उसके धुएं में जिस बीड़ी को बनाते-बनाते आज 9 साल का बच्चा भी धुएँ के छल्ले बनाने लगा है। यह भी पढ़ें- जहां मंगलसूत्र और स्मार्टफोन के नाम पर मिल जाते हों वोट, वहां विकास की बातें बेमानी हैं!

यही बुद्धिजीवी वर्ग घर के चमकते फर्श को देख इठलाता है पर नहीं देखता "कोमल" के कोमल हाथों के छाले। पाने को अपने बचपन और इस पेट की भूख की तृप्ति सड़कों पर फूल बेचता या कह लो दस रूपये में प्रेम बेचता, जिस प्रेम का "मोल" शायद उस से ज्यादा कोई और नहीं समझ सकता। बेचता रंग-बिरंगे गुब्बारे अपनी बेरंग जिंदगी में रंग भरने की कोशिश में। 

वो खुद खेलने की उम्र में हर रेड लाइट पर खिलौने लेकर दौड़ता कोई तो ख़रीद ले "अपने" बच्चों के लिए "मुझ" बच्चे से ये खिलौने। वो स्कूल के बाहर चूरन व इमली का ठेला लिए इस आस में कि क्या "मैं" भी कभी जा पाऊँगा स्कूल? बुद्धिजीवी वर्ग केवल सोच सकता है, नेता योजनाएं बना सकते है, जुलूस व नारों में सिमटती संवेदनशीलता। वो बचपन, जिसका अधिकार है वो नटखट अठखेलियां, वो पुस्तकों के भीतर छुपी अबूझ पहेलियाँ, वो खेल, संग मित्र व् सहेलियाँ, वो खिलौने, वो भविष्य के सपने, वो दुलार वो लोरियों में छुपा प्यार, पर इसके विपरीत वह समय से पहले परिपक्व हो गया।

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वह चुंबक के खेल से अंजान लोहे के टुकड़े चुनते, कालिख सने हाथ, वह कूड़े के ढ़ेर से पॉलिथीन बीनते, बुद्दिजीवियों की गंदगी से सने गंदे हाथ। वह खराद की मशीन पर लोहे को आकार देते घावों से भरे हाथ, वह मिट्टी को आकार देते सृजनात्मक हाथ, वह झूठे बर्तनों को घिसते खुरदुरे हाथ, वह भरी दोपहर चोराहों पर भीख माँगती नन्ही हथेली, वह बाल सुलभ जिज्ञासाओं से पथराई आँखों में तैरती इस जीवन की पहेली। क्या भविष्य है इनका हम नहीं जानते।

सामाजिक विकास का राग अलपने वाला बुद्धिजीवी वर्ग अगर थोडा ह्रदयजीवी भी होता तो शायद इसी समाज के कुछ बच्चों के हाथ में किताबों और खिलौनों की जगह, हथोड़े और लाल बत्ती पर बेचने वाला सामान न होता। बच्चियों और महिलाओं के सम्मान को ठेस नहीं पहुचाई जाती, दामिनी, निठारी और कठुआ काण्ड न होता, लेकिन ये तभी होता जब हमारा समाज ह्र्दयस्पर्शी होता!

Web Title: intellectual classes thinking, leaders' plans and processions-sympathetic sensitivity rumple in slogans

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