अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: ज्योतिरादित्य सिंधिया गए तो कोई भी जा सकता है भाजपा में!

By अभय कुमार दुबे | Updated: March 17, 2020 06:43 IST2020-03-17T06:43:07+5:302020-03-17T06:43:07+5:30

ज्योतिरादित्य माधवराव सिंधिया के इस कदम से कांग्रेस के उन बड़े नेताओं के बारे में पार्टी के कान खड़े हो जाने चाहिए जिनके बारे में पिछले कुछ दिनों से भाजपा में जाने की पेशबंदी करने की अफवाहें उड़ रही हैं.

Abhay Kumar Dubey's blog: Anyone can go to BJP if Jyotiraditya Scindia goes! | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: ज्योतिरादित्य सिंधिया गए तो कोई भी जा सकता है भाजपा में!

ज्योतिरादित्य सिंधिया (फाइल फोटो)

ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में जाने की घटना ने कुछ और किया हो या न किया हो, कांग्रेस के लगातार नाजुक होते चले जाने वाले भविष्य पर पड़े आखिरी पर्दे को हटा दिया है. कांग्रेस पर निगाह रखने वाले राजनीतिक जानकारों और स्वयं कांग्रेस के भीतरी हलकों को भी लगने लगा है कि अगर ज्योतिरादित्य कांग्रेस से भाजपा में जा सकते हैं तो फिर सोनिया गांधी, प्रियंका गांधी और राहुल गांधी को छोड़ कर देश की सबसे पुरानी पार्टी का हर नेता दल बदल करके भाजपा में जा सकता है.

सिंधिया और गांधी परिवार की आपसी घनिष्ठता और पार्टी के आलाकमान में ज्योतिरादित्य की ऊंची हस्ती को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि उन्हें भाजपा में जाने वाला आखिरी कांग्रेसी होना चाहिए था. वे पार्टी के सर्वोच्च मंच कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य थे, पार्टी की चुनाव प्रचार समिति के सदस्य रह चुके थे, उत्तर प्रदेश में चुनाव मुहिम के समय वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 35 सीटों के इंचार्ज थे, पार्टी के भीतर उन्हें अनौपचारिक रूप से गांधी परिवार के चौथे सबसे महत्वपूर्ण सदस्य की तरह देखा जाता था, स्वयं राहुल गांधी की मानें तो उनके घर जाने के लिए सिंधिया को कभी इजाजत की जरूरत नहीं पड़ी, और राहुल के ही मुताबिक वे छात्र जीवन से संघ विरोधी सेक्युलर विचारों के हामी थे.

अभी महीने भर पहले तक वे भाजपा और संघ की सार्वजनिक मंचों से कड़ी आलोचना कर रहे थे. उनकी भाषा वही थी जो सेक्युलर लोगों की होती है- जैसे, ‘संघ फासिस्ट है’ और ‘मोदी देश और लोकतंत्र के लिए खतरा हैं’.

सिंधिया के इस कदम से कांग्रेस के उन बड़े नेताओं के बारे में पार्टी के कान खड़े हो जाने चाहिए जिनके बारे में पिछले कुछ दिनों से भाजपा में जाने की पेशबंदी करने की अफवाहें उड़ रही हैं. इनमें एक नेता केरल के हैं और दिल्ली के अंग्रेजीदां बुद्धिजीवियों के दायरे में अपने हिंदुत्वविरोध के लिए जाने जाते हैं. दूसरे नेता पश्चिम बंगाल के हैं और पार्टी के सर्वोच्च पदों में से एक पर बैठाए जाने से पहले उनकी भाजपा के साथ सौदेबाजी करने वाले के रूप में शिनाख्त की गई थी. स्थानीय और प्रादेशिक स्तर पर तो भाजपा में जाने के लिए लालायित ऐसे नेताओं की भरमार है.

यहीं सवाल उठता है कि जो सिंधिया कांग्रेस की केंद्रीय राजनीति में संतोषजनक हैसियत में थे, वे अपने गृह प्रदेश मध्यप्रदेश की राजनीति में स्वयं को हाशिये पर क्यों पा रहे थे? मुख्यमंत्री कमलनाथ और उनके साथ सत्ताधारी जुगलबंदी कर रहे दिग्विजय सिंह को कांग्रेस आलाकमान ने यह मौका ही क्यों दिया कि सिंधिया के असंतुष्ट होने की जमीन तैयार होती चली गई. यह सही है कि ग्वालियर-चंबल संभाग की कांग्रेसी राजनीति के नियामक सिंधिया ही थे.

उनके पांच समर्थकों को मंत्री भी बनाया गया था. लेकिन, उनकी महत्वाकांक्षा मुख्यमंत्री बनने की थी. मुख्यमंत्री न बन पाने की सूरत में उन्हें प्रदेश का पार्टी अध्यक्ष बनाया जा सकता था, और राजस्थान की तर्ज पर (जहां सचिन पायलट उपमुख्यमंत्री होने के साथ-साथ पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष भी हैं) उनके किसी समर्थक को उपमुख्यमंत्री का दर्जा दिया जा सकता था. यह सब करना तो दूर रहा, सिंधिया की राज्यसभा जाने की योजना में भी नाथ-सिंह की जोड़ी ने यह कह कर पलीता लगा दिया था कि वे चाहें तो कांग्रेस उम्मीदवार बन सकते हैं लेकिन उन्हें दूसरी प्राथमिकता वाले वोट ही मिलेंगे.

यानी उस सूरत में सिंधिया का चुनाव फंस सकता था. सिंधिया को उम्मीद थी कि राहुल गांधी और गांधी परिवार के बाकी सदस्य उनकी मदद करेंगे. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, और पूरी तरह से सेक्युलर विचारों वाले ज्योतिरादित्य को आखिरकार भाजपा का दामन थामना पड़ा. ऐसे में पूछा जाना चाहिए कि नाथ-सिंह जोड़ी ने आलाकमान को क्या पट्टी पढ़ाई थी? क्या किसी राष्ट्रीय पार्टी का आलाकमान ऐसा भी होता है जिसे राज्यों की राजनीति में पार्टी के भीतर होने वाली गुटबाजी की गतिशीलता का कोई ध्यान न हो? इससे स्पष्ट होता है कि कांग्रेस की भीतरी सांगठनिक स्थिति में एक फांक पैदा हो गई है जिसने राज्यों और केंद्र की राजनीति को अलग-अलग कंपार्टमेंटों में बांट दिया है.

अगर पार्टी का संगठन इस हुलिया में है, तो इसे आत्मघाती परिस्थिति की तरह चिह्न्ति किया जाना चाहिए.
एक वरिष्ठ समीक्षक की राय है कि सिंधिया प्रकरण से कांग्रेस आलाकमान एक नकारात्मक शिक्षा ले सकता है, और इसके कारण पार्टी में अपेक्षाकृत युवा नेतृत्व को प्रोत्साहन मिलने की शुरुआत हो सकती है. इसके प्रमाण के रूप में डी.के. शिवकुमार को कर्नाटक का और अनिल चौधरी को दिल्ली का फटाफट अध्यक्ष घोषित करने को दिखाया जा रहा है. लेकिन, यह बात भी कुछ विचित्र ही लगती है, क्योंकि राहुल गांधी इस आश्वासन के साथ ही पार्टी अध्यक्ष बने थे कि वे कांग्रेस की बागडोर धीरे-धीरे नए हाथों में देते जाएंगे.

जाहिर है कि ऐसा नहीं हो पाया. राजस्थान में मुख्यमंत्री पद पायलट को न मिल कर गहलोत को मिला और म.प्र. में सिंधिया के बजाय कमलनाथ को मिला. यानी सत्ता के लिए संघर्ष करने के लिए नई पीढ़ी को याद किया जाएगा, और सत्ता मिलने पर उसकी कमान पुरानी पीढ़ी को थमा दी जाएगी. जिस पार्टी के भीतर इस तरह का अलिखित नियम चलता हो, उसके भविष्य के बारे में केवल अंदेशे ही जताए जा सकते हैं.

Web Title: Abhay Kumar Dubey's blog: Anyone can go to BJP if Jyotiraditya Scindia goes!

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