कुमार सिद्धार्थ
जलवायु परिवर्तन ने भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुंचाया है, और इसका सीधा बोझ महिलाओं पर पड़ा है. सूखे के कारण कई राज्यों में महिलाओं को पानी लाने के लिए तीन से छह किमी रोज चलना पड़ता है. तापमान बढ़ने से यह यात्रा और कठिन हो गई है. दूसरी ओर, असम, बिहार, उत्तराखंड जैसे राज्यों में बाढ़ के दौरान राहत शिविरों में महिलाओं के लिए साफ-सफाई, सुरक्षित शौचालय और सेनेटरी सुविधाओं का अभाव उन्हें दोहरी त्रासदी में धकेलता है.
इन सबके बीच 2-3 दिसंबर की रात हमें एक और गहरी चोट की याद दिलाता है, भोपाल गैस त्रासदी की. 1984 की उस आधी रात को यूनियन कार्बाइड के प्लांट से रिसी मिथाइल आइसोसायनेट गैस ने हजारों लोगों की जान ले ली और लाखों को स्थायी बीमारी की तरफ धकेल दिया.
यह आधुनिक औद्योगिक विकास की सबसे कड़वी सीख थी, जिसने बताया कि जब निगरानी, नीति और सुरक्षा कमजोर हों, तो सबसे बड़ी मार आम लोगों पर पड़ती है और सबसे अधिक महिलाओं पर. क्योंकि संकट आने पर वे बच्चे, बुजुर्ग और परिवार के बाकी सदस्यों को संभालने में स्वयं को सबसे अंत में बचा पाती हैं.
आज भी गैस प्रभावित इलाकों में महिलाएं सांस की बीमारी, प्रजनन विकार, हार्मोनल असंतुलन और हड्डियों की दुर्बलता जैसी समस्याओं से जूझ रही हैं. कई ने बार-बार गर्भपात, बांझपन और दीर्घकालिक मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का सामना किया है. भोपाल की महिलाएं अक्सर कहती हैं यह त्रासदी एक रात की नहीं थी, यह 40 वर्षों से जारी धीमा जहर है जिसने पीढ़ियों को प्रभावित किया है.
भोपाल की बरसी हर साल एक सवाल उठाती है क्या हमने इस त्रासदी से कुछ सीखा? अगर सीखा होता तो आज भी हमारे शहरों की हवा इतनी जहरीली न होती, नदियों में औद्योगिक कचरा न बहता, ग्रामीण इलाकों में महिलाएं जलसंकट के बीच घंटों भटकती न फिरतीं और जलवायु परिवर्तन को लेकर हमारी तैयारियां कागजों से आगे बढ़ चुकी होतीं. उद्योगों के सुरक्षा मानकों में सुधार, प्रदूषण नियंत्रण व्यवस्था की मजबूती और जलवायु नीति में महिलाओं की प्राथमिक भागीदारी अभी भी देश की अनकही जरूरत है.
पूरी दुनिया को यह समझना होगा कि आधी आबादी को केंद्र में रखे बिना न जलवायु नीति प्रभावी हो सकती है, न पुनर्वास योजनाएं, न औद्योगिक विकास और न ही सुरक्षित भविष्य की परिकल्पना.