मराठी और अन्य भाषाओं की तरह हिंदी में क्यों नहीं है भाषायी बोध ?

By उमेश चतुर्वेदी | Updated: February 6, 2025 06:38 IST2025-02-06T06:38:48+5:302025-02-06T06:38:53+5:30

अपनी भाषाओं के प्रति स्वाभिमान और उन्हें अपनी अस्मिता के लिए जरूरी औजार मानने वाला समाज भाषायी

Why is there no linguistic sense in Hindi like Marathi and other languages | मराठी और अन्य भाषाओं की तरह हिंदी में क्यों नहीं है भाषायी बोध ?

मराठी और अन्य भाषाओं की तरह हिंदी में क्यों नहीं है भाषायी बोध ?

राजनीतिक और महाकुंभ के समाचारों की आपाधापी के बीच एक महत्वपूर्ण समाचार कम से कम व्यापक हिंदीभाषी समाज में अनदेखा रह गया. यह समाचार भाषायी स्वाभिमान से जुड़ा हुआ है. दरअसल महाराष्ट्र सरकार ने तीन फरवरी के दिन से पूरे महाराष्ट्र के सरकारी कार्यालयों में मराठी भाषा को अनिवार्य रूप से लागू कर दिया है.

मराठी स्वाभिमान से जुड़े इस आदेश के आलोक में हिंदीभाषी राज्यों की ओर देखें तो ऐसा भाषायी स्वाभिमान बोध कम नजर आता है. बेशक उनके यहां काम हिंदी में ही होता है, लेकिन जैसे ही कोई अंग्रेजीभाषी अधिकारी, अंग्रेजीदां नागरिक सामने आ जाता है, हिंदीभाषी क्षेत्रों का भाषायी स्वाभिमान अचानक से छू-मंतर हो जाता है.  

भाषायी स्वाभिमान पर चर्चा से पहले जान लेना चाहिए कि महाराष्ट्र सरकार के आदेश के बाद राज्य में भाषायी स्तर पर कैसा बदलाव होने जा रहा है. मराठी में काम करने के आदेश के तहत अब राज्य से सभी सरकारी कार्यालयों, नगर निकायों, नगर निगमों और राज्य सरकार की सार्वजनिक कंपनियों में मराठी में काम करना जरूरी होगा.

इसके तहत वहां लगे कम्प्यूटरों के की-पैड और प्रिंटर पर रोमन के साथ मराठी देवनागरी लिपि में टेक्स्ट लिखना जरूरी हो गया है. ऐसा नहीं कि सिर्फ सरकारी कर्मचारी और अधिकारी ही मराठी में काम करेंगे, बल्कि इन दफ्तरों से जिनका पाला पड़ना है या जिन्हें आना है, उन्हें भी मराठी में ही बातचीत और दस्तावेजी कार्यवाही यानी आवेदन आदि करना होगा.

इस नियम से सिर्फ उन्हें छूट मिलेगी, जो विदेशी हैं या महाराष्ट्र के बाहर से आए हैं या मराठी भाषी नहीं हैं.  भाषा बोध के नजरिये से देखें तो मराठी भाषा के विस्तार और विकास की दिशा में उठाए गए महाराष्ट्र सरकार के इस कदम की सराहना ही होगी. लेकिन ऐसा कदम उठाने वाली महाराष्ट्र की सरकार देश की अकेली राज्य सरकार नहीं है. अपनी भाषाओं के प्रति स्वाभिमान और उन्हें अपनी अस्मिता के लिए जरूरी औजार मानने वाला समाज भाषायी

उपराष्ट्रीयताओं वाला समाज है. भारतीय राष्ट्रीयता पूरे देश की पहचान है, लेकिन देश में उपराष्ट्रीयताएं भी हैं. बंगला, तमिल, मलयालम, कन्नड़, तेलुगु,  मराठी, उड़िया, असमिया आदि इसका उदाहरण हैं. इन उपराष्ट्रीयताओं के अस्मिताबोध में उनकी अपनी भाषाएं भी महत्वपूर्ण हिस्सा हैं.  

इन संदर्भों में यह सवाल उठ सकता है कि अपनी हिंदी में ऐसा बोध क्यों नहीं दिखता. मोटे तौर पर देखें तो हिंदी की स्थिति हिंदीभाषी क्षेत्रों में भी अपने भारत की तरह ही है. जिस तरह पूरे देश में केंद्रीय स्तर पर भारतीय राष्ट्रबोध है, भाषा के संदर्भ में कुछ ऐसी ही स्थिति हिंदी की भी है.

हिंदी कोई संकेंद्रित भाषा नहीं, बल्कि भाषाओं का समुच्चय है, इसीलिए शायद हिंदीभाषी समाज भाषा को लेकर उपराष्ट्रीयता वाले समाजों की तरह आक्रामक या अस्मिताबोध से नहीं भर पाता. शायद यही वजह है कि हिंदी की उपेक्षा होती है तो हिंदीभाषी समाज नहीं उठता.

जबकि उपेक्षा करने वाली ताकतें, जिनमें ज्यादातर नौकरशाह व कुछ हद तक राजनीति है, उपराष्ट्रीयता वाले इलाकों की भाषाओं के साथ ऐसा नहीं कर पातीं.  

Web Title: Why is there no linguistic sense in Hindi like Marathi and other languages

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