अभिलाष खांडेकर ब्लॉग: बजट में पर्यावरण का आखिर कहां है स्थान?
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: July 26, 2024 10:22 IST2024-07-26T10:21:24+5:302024-07-26T10:22:13+5:30
कोई भी शहर ‘स्मार्ट’ नहीं बन पाया है, लेकिन असंवेदनशील स्मार्ट सिटी निर्माताओं द्वारा शहरों की पुरानी बस्तियों और सुंदर परिवेश को उजाड़ दिया गया है।

अभिलाष खांडेकर ब्लॉग: बजट में पर्यावरण का आखिर कहां है स्थान?
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा कीर्तिमान बनाने वाला सातवां बजट युवाओं, कॉर्पोरेट सेक्टर, किसानों, मध्यम वर्ग और गरीबों को खुश करने की कोशिश है। मोदीजी की गारंटी से वे कितने खुश थे, इसका अंदाजा पिछले चुनावों में लग ही चुका है। बजट में उन्हीं मतदाताओं को साधने की कोशिश की गई है।
लेकिन भाजपा सरकार के तीसरे कार्यकाल के नवीनतम बजट ने पर्यावरणविदों, वन संरक्षणकर्ताओं और वन्यजीव प्रेमियों को बुरी तरह से निराश किया है। यही कारण है कि जलवायु परिवर्तन के दौर में पेश किए गए केंद्रीय बजट की सराहना में इस क्षेत्र की ओर से तत्काल कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। जबकि आर्थिक सर्वेक्षण में भी जलवायु परिवर्तन के जोखिमों की चर्चा की गई थी।
इसके बावजूद अधोसंरचना के ढांचे को अभूतपूर्व बढ़ावा देना आश्चर्यजनक था, जिसका सीधा असर हरित क्षेत्र और जैव विविधता पर पड़ता है।
रक्षा क्षेत्र को सबसे अधिक आवंटन मिला है-जो सही है-लेकिन इसके साथ पर्यावरण संरक्षण अब काफी महत्वपूर्ण हो चुका है। सीतारमण ने जलवायु वित्त व्यवस्था की बात की, लेकिन पर्यावरण मंत्रालय के आवंटन में वृद्धि नगण्य है, जिससे पर्यावरणविद चिंतित हैं।
जलवायु परिवर्तन वास्तव में जितना सोचा गया था उससे कहीं ज्यादा तेजी से हो रहा है। इसका मानवता पर विनाशकारी प्रभाव पड़ेगा. कोई भी क्षेत्र इससे अछूता नहीं रहेगा। वैश्विक विशेषज्ञ दुनिया भर में विशाल सम्मेलनों के जरिये 30 से ज्यादा सालों से इस बात का संकेत दे रहे हैं। आईपीसीसी की लगातार दी गई रिपोर्टें चिंताजनक रही हैं। फिर इस ग्रीष्म ऋतु में भारत में तापमान में अभूतपूर्व वृद्धि हुई, जिसके कारण प्रधानमंत्री ने ‘एक पेड़ मां के नाम’ अभियान शुरू किया।
इस अभियान ने इस तथ्य को रेखांकित किया कि बुनियादी ढांचे के विकास की गति और राज्य और केंद्र दोनों सरकारों द्वारा किए गए निवेश के चलते शहरों और गांवों से पेड़ गायब हो रहे हैं।
वित्त मंत्री द्वारा पर्यावरण मंत्रालय को दिया गया नवीनतम आवंटन 3330.37 करोड़ रुपए है, जबकि इससे पहले दो आवंटन 3029 करोड़ रुपए और 3030 करोड़ रुपए थे। इससे पता चलता है कि वृद्धि मामूली है जो चिंता का सबब है।
राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी) को 850 करोड़ रुपए मिले हैं जो पिछले साल से करीब 100 करोड़ रुपए ज्यादा है। अक्षय ऊर्जा क्षेत्र पर भी नए प्रोत्साहनों के साथ ध्यान केंद्रित किया गया है, लेकिन बजट प्रस्तावों में बढ़ते तापमान की चुनौतियों की चिंता ज्यादा नहीं दिखती।
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट दिल्ली की अनुमिता रॉयचौधरी कहती हैं कि ‘एनसीएपी के दायरे और इसकी खर्च रणनीति को प्रभावी और मापनीय बनाने के लिए सुधारों की आवश्यकता है।’ उनका कहना है कि इसे केवल धूल नियंत्रण कार्यक्रम नहीं बनना चाहिए।
जैसा कि हम सभी जानते हैं, भारत के ज्यादातर शहर वायु प्रदूषण की चुनौती से जूझ रहे हैं जो सिर्फ दिल्ली या उत्तरप्रदेश के शहरों तक सीमित नहीं है; सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए यह एक बड़ा खतरा है। स्वच्छ भारत अभियान नरेंद्र मोदी का एक प्रशंसनीय अभियान है लेकिन जाने क्यों यह कभी भी स्वच्छ हवा या स्वच्छ जल निकायों का कार्यक्रम नहीं बन पाया। इंदौर जैसे शहरों को स्वच्छ बनाने के लिए नगरपालिका के ठोस कचरे की सफाई तक ही वह सीमित रहा।
इस बजट में भी शहरी विकास पर ध्यान केंद्रित किया गया है जो सराहनीय है, लेकिन शहरी नियोजन में पर्यावरण संरक्षण और जैव विविधता की सुरक्षा जैसी चुनौतियां अभी भी बरकरार हैं।
भारत के अधिकांश शहरों में तापमान को बढ़ने से रोकने वाले पुराने पेड़ों की अभूतपूर्व कटाई हो रही है। इस साल कई शहरों का तापमान 52 डिग्री से अधिक हो गया- जो आने वाले समय में होने वाली भीषण घटनाओं का संकेत है। पर्यावरण संरक्षण में पेड़ों की भूमिका जानने के लिए कोई रॉकेट बनाने के विज्ञान की आवश्यकता नहीं है। लेकिन विकास के नाम पर सभी राज्य सरकारें पेड़ों की अंधाधुंध कटाई की अनुमति दे रही हैं जो गलत है। राजनेताओं, योजनाकारों, नौकरशाहों, इंजीनियरों और ठेकेदारों को पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना नए बुनियादी ढांचे को खड़ा करने के तरीके खोजने होंगे। प्रौद्योगिकी और बेहतर नियोजन दृष्टिकोण के उपयोग से यह संभव है. पर करेगा कौन?
शहरी विकास कार्यक्रमों, जिनके बारे में वित्त मंत्री ने बात की, में परिनगरीय (पेरी-अर्बन) क्षेत्र और ‘परिवर्तनकारी प्रभाव के लिए ब्राउन-फील्ड विकास’ शामिल थे। अर्थात फिर से जैव विविधता जमकर प्रभावित होगी। उन्होंने इस बात का कोई उल्लेख नहीं किया कि पिछले कई वर्षों में स्मार्ट सिटी परियोजना का प्रदर्शन कैसा रहा। विभिन्न राज्यों में अधिकांश योजनाकारों ने स्मार्ट सिटी के विकास के लिए पुनर्घनत्वीकरण और रेट्रोफिटिंग के नाम पर पेड़ों की निर्मम हत्या की। कोई भी शहर ‘स्मार्ट’ नहीं बन पाया है, लेकिन असंवेदनशील स्मार्ट सिटी निर्माताओं द्वारा शहरों की पुरानी बस्तियों और सुंदर परिवेश को उजाड़ दिया गया है।
इसके लिए क्या जिम्मेदारी तय होगी ? भारत को जलवायु परिवर्तन से यदि प्रभावी ढंग से निपटना है और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करनी है, तो व्यापक पर्यावरण संरक्षण कार्यक्रम आवश्यक है। यह सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए; दिखावटी कामों से वास्तव में सफलता नहीं मिलेगी। शहरी जैव विविधता के संरक्षण, नदियों और झीलों की सफाई, अरावली पर्वतमाला जैसी पहाड़ियों की सुरक्षा आदि के लिए वित्त और राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। काश, बजट में यह सब देखा जाता।